मैं कहता हों आंखन देखी - तू कहता कागद की लेखी !
सुभाष को भुनाने कि होड़
अभी दो ही महीने पहले पश्चिम बंगाल की सनकी मुख्यमंत्री सुश्री ममता बैनरजी ने नेताजी सुभाष से सम्बंधित पश्चिम बंगाल सरकार कि चन्द फाइलें सार्वजनिक कर दिया. आसन्न चुनावों में ब्रांड सुभाष को भुनाने की गरज से वाम और कांग्रेस के संभावित गठबंधन के खिलाफ तुर्रे की तरह इसे उछाला. वह जानती ही हैं कि सुभाष बंगाल की जनता के लिए भावनात्मक महत्व का नाम है.
दूसरी तरफ बंगाल में पैर फैलाने को बेताब भारतीय जनता पार्टी भी पीछे कहाँ रहना चाहेगी? भले ही बंगाल की प्रगतिशील जनता ने इस पार्टी को घास नहीं डाली हो. मोदी जी की मोदित्वा का जादू ना तो दक्षिण में चला था और न पूरब में. बंगाल में केवल बारासात विधानसभा क्षेत्र से अपनी लम्बी पारी की समाजसेवी और लोकप्रिय नेता की छवि के चलते शमिक भट्टाचार्य ही एक अकेले विधायक इस पार्टी की टिकट पर पिछले दिनों उपचुनाव में (२०१५ में )चुने गए हैं, पर एक राजनीतिक दल और विचारधारा के तौर पर संघी बिरादरी/गिरह्बंदी को बंगाल में वैसी सफलता विभाजन के समय से आज तक कभी नहीं मिली थी जैसी कामयाबी इस दल को पंजाब, गुजरात या राजस्थान आदि पश्चिमी राज्यों में मिलती रही. खैर, मोदी ने भी पीछे न रह जाने के दबाव के चलते सुभाष कार्ड चला और देश विदेश में बसे सुभाष के तमाम परिजनों को दिल्ली बुलवा कर तेवीस जनवरी २०१६ को केंद्र सरकार के पास अब तक 'गोपनीय' रखी रहती आयी फाइलें सार्वजनिक करने का वादा किया.
उनका इरादा एक तीर से दो शिकार करने का था. एक तरफ आज तक इन फाइलों को सार्वजनिक न करने की वजह दिखलाते हुए कांग्रेस की छिछालेदर करने की संभावना से उनके मन में लड्डू फूट रहे थे तो दूसरी तरफ तृणमूल कांग्रेस की पहल से जो बढ़त उसे बंगाल में मिलने कि संभावना नज़र आ रही थी उसमें सेंध लगाने से बंगाल में भी कुछ और सीट पाने का सपना साकार होता दिखाई दे रहा था. याद रहे तेवीस जनवरी सुभाष की जयंती तो है ही, पर पिछली या फिर उससे पहले की तेवीस जनवरी या और पीछे जाने पार १९९८ से २००४ के बीच वाजपेयी के प्रधान्मंत्रित्व काल में इन फाइलों की याद भाजपा को नहीं आयी थी. दर असल इसी वर्ष मार्च अप्रैल में पश्चिम बंगाल में विधान सभा के चुनाव होने हैं.
सुभाष आपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय राजनेता थे. लोग इसीलिए उन्हें आज भी प्यार से 'नेताजी' के संबोधन से याद करते हैं. गांधीजी के नेतृत्वा में अंग्रेजी हुकूमत से समझौते के रास्ते पर जाते देख कांग्रेस से नाता तोड़ कर उन्होंने वामपंथी फॉरवर्ड ब्लाक पार्टी की स्थापना की थी. इसी बीच दूसरा विश्वा युद्ध शुरू हो चुका था. अतः समय न गवां कर तत्काल कुछ ठोस करने के नेक इरादे से ही वे भूमिगत हो कर नज़रबंदी से निकल भागे और अफगानिस्तान के रास्ते सोवियत रूस जा जोसेफ स्टालीन से मिलने की कोशिश की. इस प्रयास में नाकाम होने के बाद वे जर्मनी पहुंचे. आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना तमाम यूरोप से आये भारतीय क्रांतिकारियों के साथ की. पर नात्ज़ी पार्टी के फासिस्ट विचारधरा से वाकिफ होने के बाद किसी तरह युध्द की खतरनाक स्थितियों में भी जर्मनी से सिंगापुर की लम्बी समुद्रतल से यात्रा पूरी की. वहां वे पिछली पीढ़ी के क्रांतिकारी रास बिहारी बोस के बुलावे पर पहुंचे थे. पर तब तक जापान ने समूचे दक्षिणपूर्वी एशिया पर नियंत्रण हासिल कर लिया था. अब एक फासिस्ट से बच कर आये सुभाष के सामने अंग्रेजों से लड़ने के लिए दूसरे फासिस्ट - जापान - की मदद लेने का ही विकल्प रह गया था.
इसके बाद की घटनाएं, ख़ासकर वायुयान दुर्घटना आदि की बातें बहुत ही अस्पष्ट हैं. जो भी हो, सुभाष को भारत की अशेष जनता पीढ़ियों से एक राष्ट्रीय नायक का दर्जा देकर अपने मन में संजोये हुए है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता.
आज, पशिम बंगाल में विधान सभा चुनावों के ठीक पहले सुभाषचंद्र बोस से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करने की होड़ के पीछे सत्ताधारियों की खुराफात को ताड़ने की जरूरत है.
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27 Jan (3 days ago)
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मैं कहता हों आंखन देखी - तू कहता कागद की लेखी दूसरी क़िस्त
रोहित वेमुला की आत्महत्या और हमारी ज़मीर
रोहित वेमुला ने १८ जनवरी को एक मित्र के हॉस्टल के कमरे में पखे से झूल कर फंसी लगा ली और इस तरह आत्महत्या कर ली. दोस्त के कमरे में इसलिए, क्योंकि उसे अन्य चार डॉक्टरेट स्तर के दलित विद्यार्थियों के साथ यूनिवर्सिटी ऑफ़ हैदराबाद के उपकुलपति के आदेश पर नीलम्बित तो किया ही गया था, उन्हें विश्वविद्यालय के किसी भी भवन तक में प्रवेश करने की मनाही भी की गयी थी. पिछले दिनों इस विश्वविद्यालय के आठ दलित विद्यर्थियोने भी आत्महत्याएं की हैं. पहले घटना की संक्षिप्त जानकारी.
वेमुला चक्रवर्ती रोहित की आत्महत्या का कारण ज्यादा पेचीदा था. वेमुला चक्रवर्ती रोहित असल में आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन का सक्रीय नेता था. उसकी मां दरजी है और पिता एक निजी अस्पताल में वाचमन. ओबीसी होने के बहाने भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति करते आये बंडारू दत्तात्रेय नामक एक केंद्रीय राज्य मंत्री ने, जो राज्यसभा सदस्य हैं, पिछले अगस्त में पंद्रह दिन के अन्दर दो दो पत्र लिख कर इन छात्रों और उनके संगठन पर कार्रवाई करने की अनुशंसा की. उन्हें राष्ट्रविरोधी, जातिवादी और उग्रवादी कहते हुए पिछले अगस्त से दो बार केन्द्रीय उच्च शिक्षा मंत्री, अर्थात जिसे अब अमेरिकी चाल पर थिरकते हुए हमारे काग रूपी शासक भी 'मानव-संसाधन' मंत्री कह कर इंसान की गरिमा ही को धूसरित कर रहे हैं, उन 'मनु'-स्मृति ईरानी को बंडारू ने ये पत्र लिखे. बाद में उन्होंने कहा कि उन्होंने केवल अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ( ए बी वी पी) के दो प्रतिनिधिमंडलों की शिकायतों को अग्रेषित किया है. स्मृति कैसे विस्मृत हो सकती थीं ? उन्होंने बंडारू का पत्र हैदराबाद विश्वविद्यालय के उप-कुलपति को कार्रवाई करने के लिए भेजा ही नहीं, बल्कि पांच महीने की अवधि में पांच बार उप-कुलपति से की गयी कार्रवाई पर जवाबतलब करते हुए विभागीय स्मरणपत्रों की झडी लगा दी. इन विद्यार्थियों का दोष क्या था? वे सब के सब दलित थे, मेधावी थे, धर्मनिरपेक्ष थे और हिंदुत्व की राजनीति के आलोचक थे. उन्होंने कैम्पस में 'मुजफ्फरनगर अब भी बाकी है' नामक डॉकुमेंट्री फिल्म के प्रदर्शन में हिस्सा लिया था. याकूब मेमन को फांसी दिए जाने का विरोध करते हुए जनवाद में किसी की जान क़ानून के नाम पर लेने के खिलाफ आवाज़ उठाई थी. और हर तरह के मृत्युदंड का विरोध दर्ज किया था.
उनकी इन लोकतांत्रिक अभिव्यक्तियों से नाराज़ ए बी वी पी के नेताओं ने पहले मारपीट और जोर आजमाइश का रास्ता अपनाया. पर जब इसमें कमज़ोर साबित हुए तो पुलिस में झूठी शिकायत लिखवा कर इन युवकों पर आपराधिक मुकाद्दमें दर्ज करते हुए दूसरी तरफ अपने आका बंडारू से शिकायत की. बंडारू मानो इंतज़ार में ही बैठे थे. तुरंत अपनी लेटरहेड पर इन शोध विद्यार्थियों को राष्ट्रविरोधी, जातिवादी और उग्रवादी आदि घोषित करते हुए इनके खिलाफ कठोर कार्रवाई की अनुशंसा की. सुशील कुमार नामक ए बी वी पी के नेता ने अस्पताल में अपेंडिक्स का ऑपरेशन करवाया पर पुलिस शिकायत में आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन के वेमुला आदि छात्रों द्वारा पीटे जाने के कारण हुए जख्मों को इस का कारण बताया. उसकी इस झूठ को न तो पुलिस ने माना और ना ही विश्वविद्यालय ने. उसने अपनी मां के ज़रिये उच्च न्यायालय में भी एक याचिका दायर करवाई. वहां पुलिस और विश्वविद्यालय प्रशासन दोनों ने उसकी चोटों को सतही और मामूली मान कर एफिडेविट दाखिल की हैं.
दलितों के लिए आजादी के ६९ साल बाद भी ऐसा सुलूक आम बात है. दलितों की बस्तियां फूंक दी जाती है पर 'सम्मानित और संभ्रांत पृष्ठभूमि' के गुनाहगारों को निर्दोष मान कर उच्च स्तर की अदालतें उन्हें रिहा कर देती आयी हैं.
पर मैं रोहित की आत्महत्या को दूसरे सन्दर्भ में देखने की धृष्टता कर रहा हूँ. इस बीच तमिलनाडु से भी तीन मेडिकल छात्राओं के सामूहिक आत्महत्या की खबर सुर्खी बनी. कुछ दिन पहले 'भारत की आइ ए एस / आइ पी एस प्रवेश परीक्षा की कोचिंग क्लास फैक्टरी' के तौर पर बद्नाम राजस्थान के कोटा में करीब चौदह बच्चों द्वारा पिछले दिनों आत्महत्याएं किये जाने की खबर ई थी. आइ ए एस /आइ पी एस बनने के लिए बच्चों पर इतना अधिक मानसिक दबाव उन्हें अवसाद की ओर और फिर सीधे आत्महत्या तक ले जाता है. पर वह बच्चा कोई भी हो सकता है. तनाव और अवसाद में विद्यार्थियों की आत्महत्याएं चिंताजनक हैं. शिक्षा व्यवस्था में स्तरीकरण की रुझान पर सवालिया निशान ज़रूर लगा जाते हैं. केजी से पीजी तक निःशुल्क समान शिक्षा प्रणाली जैसी अनिल सदगोपाल सरीखे शिक्षाविदों की मांग पर भी बहस की ज़रुरत है.
परन्तु रोहित या उससे पहले हैदराबाद में या रूडकी में, अन्य आइ आइ टी संस्थानों में होने वाली दलित विद्यार्थियों, शोधार्थियों की आत्महत्याएं क्या इन से अलग नहीं हैं? रोहित न तो पहला दलित मेधावी था जिसने आत्माहत्या का रास्ता अपनाया और न ही अंतिम. पर हमारे तथाकथित आधुनिक उच्च शिक्षा के केन्द्रों में दलित/आदिवासियों के साथ की जानेवाली गैरबराबरी और भेदभावपूर्ण बदसलूकी के पीछे की ब्राह्मणी सामंती मानसिकता से चालित वर्ग/वर्णों की सदियों से चली आती मिथ्या श्रेष्ठता के गुरूर को वर्तमान शासन व्यवस्था और शासक क्या हवा नाहीं दे रहे? जनवादी चेतना की हल्के से आभास से ही समूची राज्य व्यवस्था को सक्रिय कर मासूम और होनहार विद्यार्थियों पर टूट पड़ने की प्रवृत्ति हमें कहाँ ले जाएगी !
तुषार
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