बुधवार, 27 जनवरी 2016

दख़ल की दुनिया: उच्च शिक्षा में ऊंच-नीच

दख़ल की दुनिया: उच्च शिक्षा में ऊंच-नीच

 मैं कहता हों आंखन
 देखी - तू कहता कागद की लेखी
    
                     
                     
       
दूसरी क़िस्त 

रोहित वेमुला की
आत्महत्या और हमारी ज़मीर
  
 रोहित वेमुला ने १८ जनवरी को एक मित्र पर्थ सारथि
के हॉस्टल के कमरे में पखे से झूल कर फंसी लगा ली और इस तरह आत्महत्या कर ली.
दोस्त के कमरे में इसलिए
, क्योंकि उसे और चार डॉक्टरेट स्तर के दलित
विद्यार्थियों के साथ यूनिवर्सिटी ऑफ़ हैदराबाद के उपकुलपति के आदेश पर नीलम्बित तो
किया ही गया था
, उन्हें विश्वविद्यालय के किसी भी भवन तक में
प्रवेश करने की मनाही भी की गयी थी. पिछले दिनों इस विश्वविद्यालय के आठ दलित
विद्यर्थियोने भी आत्महत्याएं की हैं. पहले घटना की संक्षिप्त जानकारी.
 
वेमुला चक्रवर्ती
रोहित की आत्महत्या का कारण ज्यादा पेचीदा था. वेमुला चक्रवर्ती रोहित असल में
आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन का सक्रीय नेता था.उसकी मां दरजी है और पिता एक निजी
अस्पताल में वाचमन. ओबीसी होने के बहाने भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति करते आये
बंडारू दत्तात्रेय नामक एक केंद्रीय राज्य मंत्री ने
, जो राज्यसभा सदस्य हैं, पिछले अगस्त में पंद्रह दिन के अन्दर दो दो पत्र
लिख कर इन छात्रों और उनके संगठन पर कार्रवाई करने की अनुशंसा की. उन्हें
राष्ट्रविरोधी
, जातिवादी और उग्रवादी कहते हुए पिछले अगस्त से दो
बार केन्द्रीय उच्च शिक्षा मंत्री
, जिसे
अब अमेरिकी चाल पर थिरकते हुए हमारे काग रूपी शासक भी
'मानव-संसाधन' मंत्री
कह कर इंसान की गरिमा ही को धूसरित कर रहे हैं
, उन
'मनु'-स्मृति
ईरानी को बंडारू ने ये पत्र लिखे. बाद में उन्होंने कहा कि उन्होंने केवल अखिल
भारतीय विद्यार्थी परिषद् (
 ए बी वी पी) के दो
प्रतिनिधिमंडलों की शिकायतों को अग्रेषित किया है. स्मृति कैसे विस्मृत हो सकती
थीं
? उन्होंने बंडारू के पत्र को हैदराबाद
विश्वविद्यालय के उप-कुलपति को कार्रवाई करने के लिए भेजा ही नहीं
, बल्कि पांच महीने की अवधि में पांच बार उप-कुलपति
से की गयी कार्रवाई पर जवाबतलब करते हुए विभागीय स्मरणपत्रों की झडी लगा दी. इन
विद्यार्थियों का दोष क्या था
? वे सब के सब दलित थे, मेधावी थे, धर्मनिरपेक्ष
थे और हिंदुत्व की राजनीति के आलोचक थे. उन्होंने कैम्पस में
'मुजफ्फरनगर अब भी बाकी है' नामक डॉकुमेंट्री फिल्म के प्रदर्शन में हिस्सा
लिया था. याकूब मेमन को फांसी दिए जाने का विरोध करते हुए जनवाद में किसी की जान
क़ानून के नाम पर लेने के खिलाफ आवाज़ उठाई थी. और हर तरह के मृत्युदंड का विरोध
दर्ज किया था.
उनकी इन लोकतांत्रिक
अभिव्यक्तियों से नाराज़ ए बी वी पी के नेताओं ने पहले मारपीट और जोर आजमाइश का
रास्ता अपनाया. पर जब इसमें कमज़ोर साबित हुए तो पुलिस में झूठी शिकायत लिखवा कर इन
युवकों पर आपराधिक मुकाद्दमें दर्ज करते हुए दूसरी तरफ अपने आका बंडारू से शिकायत
की. बंडारू मानो इंतज़ार मेही बैठे थे. तुरंत अपनी लेटरहेड पर इन शोध विद्यार्थियों
को  राष्ट्रविरोधी
, जातिवादी और उग्रवादी आदि घोषित करते हुए इनके
खिलाफ कठोर कार्रवाई की अनुशंसा की. सुशील कुमार नामक ए बी वी पी के नेता ने
अस्पताल में अपेंडिक्स का ऑपरेशन करवाया पर पुलिस शिकायत में आंबेडकर स्टूडेंट्स
एसोसिएशन के वेमुला आदि छात्रों द्वारा पीटे  जाने के कारण हुए जख्मों को इस
का कारण बताया. उसकी इस झूठ को न तो पुलिस ने माना और ना ही
  विश्वविद्यालय ने. उसने अपनी मां के ज़रिये उच्च
न्यायालय में भी एक याचिका दयर करवाई. वहां पुलिस और विश्वविद्यालय प्रशासन दोनों
ने उसके चोटों को सतही और मामूली मान कर एफिडेविट दाखिल की हैं.
 
दलितों के लिए आजादी
के ६९ साल बाद भी ऐसा सुलूक आम बात है. दलितों की बस्तियां फूंक दी जाती है पर
'सम्मानित और संभ्रांत पृष्ठभूमि' के गुनाहगारों को निर्दोष मान कर उच्च स्तर की
अदालतें उन्हें रिहा कर देती आयी हैं.
 
पर मैंने रोहित की
आत्महत्या को दुसरे सन्दर्भ में देखने की धृष्टता
 कर रहा हूँ. इस बीच तमिलनाडु से भी तीन मेडिकल
छात्राओं के सामूहिक आत्महत्या की  खबर सुर्खी बनी. कुछ दिन पहले
'भारत की आइ ए एस / आइ पी एस प्रवेश परीक्षा की
कोचिंग क्लास फैक्टरी
' के तौर पर बद्नाम राजस्थान के कोटा में करीब चौदह
बच्चों द्वारा पिछले दिनों आत्महत्याएं किये जाने की खबर ई थी.आइ ए एस /आइ पी एस
बनने के लिए  बच्चों पर इतना अधिक मानसिक दबाव उन्हें अवसाद की ओर और फिर
सीधे आत्महत्या तक ले जाता है. पर वह बच्चा कोई भी हो सकता है. तनाव और अवसाद में
विद्यार्थियों की आत्महत्याएं चिंताजनक हैं. शिक्षा व्यवस्था में स्तरीकरण की
रुझान पर सवालिया निशान ज़रूर लगा जाते हैं.
शिक्षा
व्यवस्था में स्तरीकरण की रुझान पर सवालिया निशान ज़रूर लगा जाते हैं. केजी से पीजी
तक निःशुल्क समान शिक्षा प्रणाली जैसी अनिल सदगोपाल सरीखे शिक्षाविदों की मांग पर
भी  बहस की ज़रुरत है.
 

परन्तु रोहित या उससे
पहले हैदराबाद में या रूरकी में
, अन्य आइ आइ टी
संस्थानों में होने वाली दलित विद्यार्थियों
, शोधार्थियों
की आत्महत्याएं क्या इन से अलग नहीं हैं
? रोहित
न तो पहला दलित मेधावी था जिसने आत्माहत्या का रास्ता अपनाया और न ही अंतिम. पर
हमारे तथाकथित आधुनिक उच्च शिक्षा के केन्द्रों में दलित/आदिवासियों के साथ की
 जानेवाली गैरबराबरी और भेदभावपूर्ण बदसलूकी के पीछे की ब्राह्मणी सामंती
मानसिकता से चालित वर्ग/वर्णों की सदियों से चली आती मिथ्या श्रेष्ठता के गुरूर को
वर्तमान शासन व्यवस्था और शासक क्या हवा नाहीं दे रहे
? जनवादी चेतना की हल्के से आभास से ही समूची राज्य
व्यवस्था को सक्रिय कर मासूम और होनहार विद्यार्थियों  पर टूट पड़ने की
प्रवृत्ति हमें कहाँ ले जाएगी !  
  

 
               


तुषार   

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