गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

मैं कहता हों आंखन  देखी - तू कहता कागद की लेखी         
तंजानिया की युवती को निर्वस्त्र कर घुमाना
कैसी सभ्यता कैसी मानसिकता ?    
बेंगलूरू  में फ़रवरी के प्रारम्भ में एक कार से घर लौट रहे तंजानियाई युवक और युवती के साथ अमानवीय ढंग का सुलूक एक हुजूम ने किया. घटना से देश की गर्दन शर्म से झुक जानी चाहिए. क्या उत्तरक्या दक्षिण - भारतीय लोगों की विकृत मानसिकता अब एक बीमारी के स्तर पर जा पहुँची है. विदेशी/ फिरंगियों के साथ उत्तर भारत के शहरों में बलात्कार की घटनाएं पहले भी घटती रही हैं. आपराधिक मानसिकता कह कर सिर्फ उन बलात्कारियों को शीघ्र सजा दे कर हमारी न्यायपालिका ने वाहवाही तो पायी है, पर सामूहिक मानसिकता का  समाजशास्त्रीय स्तर पर विश्लेषण और विवेचना करने तथा समूचे समाज की मानसिकता के जनवादीकरण के प्रयास आज तक नहीं हुए हैं.
 अफ्रीका से आ कर भारतीय शहरों में स्थित विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाई कर रहे छात्रों के साथ आये दिन जैसा सलूक हमारी  "नागरिक" और "सभ्य" जनता करती हैउसके पीछे सिर्फ 'आपराधिक मानसिकता' को अथवा 'भीड़ की मानसिकता' को दोष देकर हम पल्लू नहीं झाड सकते. तंजानियाई युवती को नग्न कर, खुली सड़क पर सैकड़ों लोगों के बीच उसे जुलूस की शक्ल में घुमाने की घटना को केवल राजनयिक समस्या के तौर पर भी कुछ सत्तासीन लोगों ने चित्रित किया है. तंज़ानिया तीसरी दुनिया का पिछड़ा हुआ अफ्रीकी देश हैइस कारण राजनयिक 'संकटनहीं खड़ी हुई. दो दिन बाद जनता की कमज़ोर याददाश्त के बहाने अखबारों और टीवी की खबरिया चैनलों से भी इस घटना को भुला दिया जायेगा. 
हम आज तक दुनिया को सभ्यता सिखाने का दंभ पालते रहे हैं. पर सच्चाई कुछ ऐसी है कि हमारी गिरेबान में धब्बे ही धब्बे नज़र आते हैं. पौराणिक काल के चीर हरण से ले कर रूप धर कर सम्भोग (दुसरे लफ़्ज़ों में बलात्कार) करने तक को प्रकारांत से वैधता प्रदान किया जाता रहा है. उच्च वर्ण-वर्गीय नैतिकता के ब्राह्मणी-सामंतवादी पैमानों के चलते समाज के दबे कुचलेवंचित और हाशिये के तबकों के साथ की जाती रही ज्यादतियों को छुपा जाने या महिमा मंडित कर जायज़ ठहराने का चलन हमारी चेतना में गूँथ दिया गया है. एकलव्यों और शम्बूकों की अंगूठे काट लेने या सरासर हत्या कर देने तक को बड़ी ही बेशर्मी के साथ उचित और अवतार की लीला अदि कह कर इन जघन्य अपराधों का समर्थन हम करते आये हैं. 
बीसवीं सदी में जब दलित चेतना ने अंगडाई लीतब से तो खूंख्वार हिंदुत्व का रूप ले कर ब्राह्मणी सामंतवाद ने शूद्र मानी जाती रही जातियों को ही उनपर हमले करने को उकसा दिया. तमिलनाडु के किल्वेनमणि में १९६६ में सवर्ण जमींदारों द्वारा दलित टोले को घेर कर किया गया ४० दलितों का नरसंहार से इस तरह के अपराधों की शुरुआत हुई. महाराष्ट्र में मराठवाडा के नामांतर आन्दोलन के समय से वहां लगातार हुए नरसंहारोंफूलन देवी के साथ हुई घटना और बिहार में हुई नर संहार की अनगिनत घटनाएँ महज उस लम्बी फेहरिस्त में से चन्द हैं जिनके कारण दलितोथ्थान/प्रगति से उपजी प्रतिक्रियात्मक हिंसा और असहिष्णुता का एक न थमने वाला सिलसिला चल पड़ा है. पर किसी सूडानी की कार से हुई दुर्घटना की प्रतिक्रिया में  तंजानियाई छात्रों पर किया गया हमला सारी  हदें पार कर गईं. क्या इसमें हमारी चेतना में छिपी न्यूनता गंड की बू नहीं आती अंग्रेजों/फिरंगियों ( रंगहीन- अथवा'गोरों' ) के 'गोरेपनसे चौंधियाए सवर्ण भूरे भारतीय मानस में पहले ही से शूद्र और अस्पृश्यों के प्रति मौजूद रहे  तिरस्कार भाव को मानो पंख ही लग गए हों! इधर 'फेयर एंड लवलीएक हफ्ते में  गोरेपन के नाम पर बिकने वाली क्रीम के बिक्री के आंकड़ों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि हम 'गोराबनने के लिए किस हद तक जा सकते हैं! उत्तरपूर्व के छात्रों को चीनी कहकर उलाहना ही नहीं दिया जातादिल्ली में तो पिछले वर्षों दो मणिपुरी विद्यार्थियों कि पीट पीट कर हत्या तक कर दी गयी. इन में से एक तो एक मंत्री का १७ वर्षीय पुत्र था. बेंगलूरू में ऐसे  ही घृणाजनित हमलों से दो साल पहले सारे उत्तरपूर्व के छात्रों को पलायन करना पड़ गया था.
काले रंग को यूरोपियों की तरह भारत में भी निम्न और नकारात्मक रूप में देखा जाता रहा है. अफ्रीका की जनता के साथ ही फिरंगियों ने हम भारतीयों को भी समान रूप से गुलाम बनाये रखा था. जैसे अफ़्रीकी लोगों को दास बना कर अमेरिका में बेचा गया उसी तरह हमारे भोजपुर आदि इलाकों से,तमिलनाडु से हजारों को 'गिरमिटियाबना कर सात समंदर पार ले जाया गया. दक्षिण अफ्रीका और सूरीनामजमैका आदि वेस्ट इन्डीस देशों में तो अफ़्रीकी गुलामों और हमारे पूर्वजों से अलग कर'गिरमिटियाबनाये गए लोगों को एक जैसा रंगभेद और गुलामी का बर्ताव सहना पड़ा. इस तरह साझा इतिहास और साझी विरासत होते हुए भी हमारी न्यूनतागंड में हमें काले रंग के लोगों के साथ दुर्व्यवहार करने कि प्रवृत्ति की ओर धकेल दिया. नस्ल असल में चमड़ी तक ही गहरी हैयह तो अब साबित हो ही चुका है (जीनोम प्रोजेक्ट के बाद). समूची मानव जाती की जननी भी इथियोपिया की एक नारी ही थी, यह भी वैज्ञानिक आधार  पर साबित हो गया है. चाणक्य तो ‘काला ब्राह्मण’ था यह प्रसिद्ध है ही. फिर हमारी सामूहिक चेतना से यह नस्ली/जातीय भेदभाव और घृणा कैसे मिटे?  समस्त मानव जाति के 'कुटुंब'होने कि थोथी दलीलें काम नहीं आने वाली. असल में हमारी सामूहिक मानसिकता के जनवादीकरण के बिना किसी परिवर्तन की आशा करना रेत से घी निकालने जैसी आशा ही होगी.  
तुषार          
तुषार कान्ति
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