आज लेखन एक साहसिक और जोखिम भरा व्यवसाय है और जोखिम उठाये बिना कुछ भी संभव नहीं.चित्र काफी कुछ कहता है ....

रविवार, 6 मार्च 2016

मैं कहता हों आंखन  देखी - तू कहता कागद की लेखी          4

महिषासुर का फैलता दायरा और मिथकों की राजनीति 

सबसे पहले मनु...स्मृति ईरानी को धन्यवाद. जे एन यू की घटनाएं और युनिवेर्सिटी ऑफ़ हैदराबाद के शोध छात्र वेमुला चक्रवर्ती रोहित की आत्महत्या के सवाल पर बहस के दौरान मनु... माफ़ कीजिये,...स्मृति ईरानी ने लोकसभा में जो धुंआंधार भाषण डे डाला उस रौ में उन्होंने जवाहरलाल विश्वविद्यालय में महिषासुर शहादत दिन मनाये जाने का भी जिक्र किया. असल में उनके  इरादे पर शक नहीं किया जाना चाहिए. उनकी पार्टी के प्रति सहानुभूति जगाने और विरोधी पार्टियों को निरुत्तर कर देने के इरादे से ही उन्होंने इस क्रियाकलाप का जिक्र किया होगा. पर हाय रे सेरियलों में अतिनाटकीयता और आवेश में भावुक होने - करने की जवानी से लग चुकी आदत ! यही आदत लगता है ले डूबेगी स्मृति और उनकी पार्टी को. एकबार महिषासुर को महिमामंडित करने पर उन्होंने लोकसभा में आवेश क्या जाहिर कर दिया, पासा लगता है उलटा पड़ गया. जिन बहुजनों को धार्मिक भावनाएं भड़का कर आर एस एस और भाजपा आजतक अपनी राजनीति कि रोटियां सेंकती आई है वही गैर-ब्राह्मण बहुजन स्मृति ईरानी के भाषण से भड़क गया. कुछ विरोधी पार्टियों ने तो उनके संसद में विशेषाधिकार भंग करने की नोटिस सभापति सुमित्रा महाजन को थमा भी दी है. परन्तु हम हैरान कुछ दुसरी ही वजह हुए.
दर असल ईरानी जी ने मधुमख्खियों के छत्ते को झकझोर दिया है और फिर भी वहीँ डटी रहीं. अब दंश भी  झेलना होगा. खैर, बात महिषासुर कि हो रही थी. स्मृति ईरानी तो निमित्त बन कर आयीं. महिषासुर के पौराणिक/मिथकीय चरित्र ने हमेशा ही मन में कई सवाल उठाये हैं. करीब दस साल पहले मुझे बिहार सरकार की एन्थ्रोपोलोजिकल डिपार्टमेंट की आदिम जातियों से सम्बंधित प्रकाशन में ढूँढ़ते हुए एक परिच्छेद का एक इन्दराज  दर्ज मिला और इसके साथ एक महिला का चित्र. असुर नामक एक आदिम जाति के बारे में बिहार सरकार  के पास केवल इतनी सी जानकारी थी. महिला को चट्टान से रिसते  पानी को पत्ते के सहारे मटके में समेटते दिखाया गया था. मेरी उत्सुकता बढ़ती गयी और मैंने जब दोस्तों मित्रों से जानकारी हासिल की तो यह जान कर और भी उत्साहित हुआ कि मिथकीय असुरों के स्टीरिओ टाइप से अलग हमारे आज के झारखण्ड राज्य में बसे असुर तो हज़ारों साल पहले ही लोहा के खनिज को गलाकर उससे अशुद्धियाँ अलग कर इस्तेमाल करना जानते थे. वे महिषासुर को अपना आराध्य और पूर्वज मानते हैं. वे जहाँ रहते हैं उन में से एक जिले का नाम ही लोहरदग्गा है! खैर इन असुरों में पहली महिला स्नातक सुषमा असुर से बाद में परिचय हुआ.
बंगालियों और उत्तर भारतीयों में लोकप्रिय दुर्गा पूजा के समय महिषासुर-वध करती देवी के बुत को बचपन से देखता और मन ही मन यह सोच कर हैरान होता कि महिषासुर का चेहरा-मोहरा संथाल आदिवासियों से इतना साम्य क्यों रखता है? अब ईरानी जी की आवेशपूर्ण टिपण्णी के बाद समझ आया कि बंगाल झारखंड के संथाल तो महिषासुर को अपना पूर्वज मान कर उनकी आराधना करते ही हैं. अब जब खोज में निकल पड़ा तो किसी रहस्य की परतों की तरह महिषासुर की महिमा मेरे आगे खुलती चली गईं.
सिर्फ संथाल और असुर आदिवासी ही नहीं, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर रहने वाले कोरकू आदिवासी भी महिषासुर को आराध्य मानते हैं. और् तो और, मध्य प्रदेश और उत्तरप्रदेश के कई जिलों में फैले बुंदेलखंड में भी महिषासुर के एक दो नहीं, कई मंदिर हैं. और इनमें कोई आदिवासी नहीं, यादव/ अहीर लोग महिषासुर की पूजा करते हैं! देवासुर युद्ध का मिथक बेशक  आर्य और आदिवासियों के बीच चली लम्बी लड़ाईयों के आर्य पाठ के आधार पर गढ़ लिया गया हो, ऐसा मुझे विश्वास हो चला है. अंग्रेजों ने आर्य/द्रविड़ जातियों का अंतर दिखला दिया. क्या अंग्रेजों के पहले कम से कम एक सहस्राब्दी तक ऐसा विभाजन नज़र आता रहा है ? नागार्जुन से शंकराचार्य और रामानुजाचार्य-रामानन्द तक सभी प्रकट रूप से दक्षिण के विद्वान थे, जिन्हें उत्तर में भी पूरी मान्यता और आदर मिला. जो भी हो, महिषासुर की खोज में दक्षिणमुखी हुआ तो कर्नाटक राज्य के दूसरे बड़े शहर मैसूरु पर आ कर नज़र ठहर गयी. 'ऊरु' द्रविड़ भाषाओं में 'गाँव' का पर्यायवाची है. महिषासुर+ऊरु=मैसूरु. यह समीकरण कोई मेरी उपजाऊ खोपड़ी की पैदावार नहीं, वास्तविक है. वहां तो महिषासुर की विशाल प्रतिमाएं सार्वजनिक स्थलों की शोभा बढ़ाती नज़र आती है. पछले दिनों अखबारों में ऐसी एक प्रकांड प्रतिमा की तस्वीर देखने का सौभाग्य मिला. 
तो फिर कह सकते हैं कि समूचे देश में महिषासुर के प्रशंसक फैले नज़र आये. मनु... (माफ़ करें)...स्मृति ईरानी का महिषासुर की शहादत पर जे एन यू के छात्रों का समावेश करने को  देशद्रोह मान कर राष्ट्रविरोधी कार्रवाई घोषित करना भजपा के लिए गले कि हड्डी साबित हो सकती है. न निगलते बने न उगलते! तमाम बहुजन आदिवासी अगर अपने अपने महिषासुर के पक्ष में लामबंद हो रहे हैं तो भाजपा की वोटबैंक की राजनीति के लिए यह अशुभ संकेत है. महिषासुर ही बचाये ऐसी विपदा से. वरना मैदान छोड़ कर कृष्ण का रणछोड़ दास का नाम सार्थक करते नज़र आने में देर न होगी... वैसे भी, अगले महीने-दो महीने में चार राज्यों में चुनाव हैं. बाबा साहेब आंबेडकर को जिस तरह समरसता में समाहित करने की कवायद चल रही है, उसी तरह किसी दिन मोदी जी और मोहन भागवत अगर महिषासुर वंदना करते नज़र आने लगें तो एक बार मुझे याद कर लीजिये.                   

तुषार ३०१, ऋतुराज अपार्टमेन्ट, एस – ५, भरतनगर, अमरावती रोड, नागपुर-४४००३३ मोबाइल (०)९९२२४९०३८३  

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

मैं कहता हों आंखन  देखी - तू कहता कागद की लेखी         
तंजानिया की युवती को निर्वस्त्र कर घुमाना
कैसी सभ्यता कैसी मानसिकता ?    
बेंगलूरू  में फ़रवरी के प्रारम्भ में एक कार से घर लौट रहे तंजानियाई युवक और युवती के साथ अमानवीय ढंग का सुलूक एक हुजूम ने किया. घटना से देश की गर्दन शर्म से झुक जानी चाहिए. क्या उत्तरक्या दक्षिण - भारतीय लोगों की विकृत मानसिकता अब एक बीमारी के स्तर पर जा पहुँची है. विदेशी/ फिरंगियों के साथ उत्तर भारत के शहरों में बलात्कार की घटनाएं पहले भी घटती रही हैं. आपराधिक मानसिकता कह कर सिर्फ उन बलात्कारियों को शीघ्र सजा दे कर हमारी न्यायपालिका ने वाहवाही तो पायी है, पर सामूहिक मानसिकता का  समाजशास्त्रीय स्तर पर विश्लेषण और विवेचना करने तथा समूचे समाज की मानसिकता के जनवादीकरण के प्रयास आज तक नहीं हुए हैं.
 अफ्रीका से आ कर भारतीय शहरों में स्थित विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाई कर रहे छात्रों के साथ आये दिन जैसा सलूक हमारी  "नागरिक" और "सभ्य" जनता करती हैउसके पीछे सिर्फ 'आपराधिक मानसिकता' को अथवा 'भीड़ की मानसिकता' को दोष देकर हम पल्लू नहीं झाड सकते. तंजानियाई युवती को नग्न कर, खुली सड़क पर सैकड़ों लोगों के बीच उसे जुलूस की शक्ल में घुमाने की घटना को केवल राजनयिक समस्या के तौर पर भी कुछ सत्तासीन लोगों ने चित्रित किया है. तंज़ानिया तीसरी दुनिया का पिछड़ा हुआ अफ्रीकी देश हैइस कारण राजनयिक 'संकटनहीं खड़ी हुई. दो दिन बाद जनता की कमज़ोर याददाश्त के बहाने अखबारों और टीवी की खबरिया चैनलों से भी इस घटना को भुला दिया जायेगा. 
हम आज तक दुनिया को सभ्यता सिखाने का दंभ पालते रहे हैं. पर सच्चाई कुछ ऐसी है कि हमारी गिरेबान में धब्बे ही धब्बे नज़र आते हैं. पौराणिक काल के चीर हरण से ले कर रूप धर कर सम्भोग (दुसरे लफ़्ज़ों में बलात्कार) करने तक को प्रकारांत से वैधता प्रदान किया जाता रहा है. उच्च वर्ण-वर्गीय नैतिकता के ब्राह्मणी-सामंतवादी पैमानों के चलते समाज के दबे कुचलेवंचित और हाशिये के तबकों के साथ की जाती रही ज्यादतियों को छुपा जाने या महिमा मंडित कर जायज़ ठहराने का चलन हमारी चेतना में गूँथ दिया गया है. एकलव्यों और शम्बूकों की अंगूठे काट लेने या सरासर हत्या कर देने तक को बड़ी ही बेशर्मी के साथ उचित और अवतार की लीला अदि कह कर इन जघन्य अपराधों का समर्थन हम करते आये हैं. 
बीसवीं सदी में जब दलित चेतना ने अंगडाई लीतब से तो खूंख्वार हिंदुत्व का रूप ले कर ब्राह्मणी सामंतवाद ने शूद्र मानी जाती रही जातियों को ही उनपर हमले करने को उकसा दिया. तमिलनाडु के किल्वेनमणि में १९६६ में सवर्ण जमींदारों द्वारा दलित टोले को घेर कर किया गया ४० दलितों का नरसंहार से इस तरह के अपराधों की शुरुआत हुई. महाराष्ट्र में मराठवाडा के नामांतर आन्दोलन के समय से वहां लगातार हुए नरसंहारोंफूलन देवी के साथ हुई घटना और बिहार में हुई नर संहार की अनगिनत घटनाएँ महज उस लम्बी फेहरिस्त में से चन्द हैं जिनके कारण दलितोथ्थान/प्रगति से उपजी प्रतिक्रियात्मक हिंसा और असहिष्णुता का एक न थमने वाला सिलसिला चल पड़ा है. पर किसी सूडानी की कार से हुई दुर्घटना की प्रतिक्रिया में  तंजानियाई छात्रों पर किया गया हमला सारी  हदें पार कर गईं. क्या इसमें हमारी चेतना में छिपी न्यूनता गंड की बू नहीं आती अंग्रेजों/फिरंगियों ( रंगहीन- अथवा'गोरों' ) के 'गोरेपनसे चौंधियाए सवर्ण भूरे भारतीय मानस में पहले ही से शूद्र और अस्पृश्यों के प्रति मौजूद रहे  तिरस्कार भाव को मानो पंख ही लग गए हों! इधर 'फेयर एंड लवलीएक हफ्ते में  गोरेपन के नाम पर बिकने वाली क्रीम के बिक्री के आंकड़ों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि हम 'गोराबनने के लिए किस हद तक जा सकते हैं! उत्तरपूर्व के छात्रों को चीनी कहकर उलाहना ही नहीं दिया जातादिल्ली में तो पिछले वर्षों दो मणिपुरी विद्यार्थियों कि पीट पीट कर हत्या तक कर दी गयी. इन में से एक तो एक मंत्री का १७ वर्षीय पुत्र था. बेंगलूरू में ऐसे  ही घृणाजनित हमलों से दो साल पहले सारे उत्तरपूर्व के छात्रों को पलायन करना पड़ गया था.
काले रंग को यूरोपियों की तरह भारत में भी निम्न और नकारात्मक रूप में देखा जाता रहा है. अफ्रीका की जनता के साथ ही फिरंगियों ने हम भारतीयों को भी समान रूप से गुलाम बनाये रखा था. जैसे अफ़्रीकी लोगों को दास बना कर अमेरिका में बेचा गया उसी तरह हमारे भोजपुर आदि इलाकों से,तमिलनाडु से हजारों को 'गिरमिटियाबना कर सात समंदर पार ले जाया गया. दक्षिण अफ्रीका और सूरीनामजमैका आदि वेस्ट इन्डीस देशों में तो अफ़्रीकी गुलामों और हमारे पूर्वजों से अलग कर'गिरमिटियाबनाये गए लोगों को एक जैसा रंगभेद और गुलामी का बर्ताव सहना पड़ा. इस तरह साझा इतिहास और साझी विरासत होते हुए भी हमारी न्यूनतागंड में हमें काले रंग के लोगों के साथ दुर्व्यवहार करने कि प्रवृत्ति की ओर धकेल दिया. नस्ल असल में चमड़ी तक ही गहरी हैयह तो अब साबित हो ही चुका है (जीनोम प्रोजेक्ट के बाद). समूची मानव जाती की जननी भी इथियोपिया की एक नारी ही थी, यह भी वैज्ञानिक आधार  पर साबित हो गया है. चाणक्य तो ‘काला ब्राह्मण’ था यह प्रसिद्ध है ही. फिर हमारी सामूहिक चेतना से यह नस्ली/जातीय भेदभाव और घृणा कैसे मिटे?  समस्त मानव जाति के 'कुटुंब'होने कि थोथी दलीलें काम नहीं आने वाली. असल में हमारी सामूहिक मानसिकता के जनवादीकरण के बिना किसी परिवर्तन की आशा करना रेत से घी निकालने जैसी आशा ही होगी.  
तुषार          
तुषार कान्ति
३०१ऋतुराज अपार्टमेंट
एस - ५भरतनगरअमरावती रोड
नागपुर -- ४४ ०० ३३ 
मोबाइल नंबर  : +९१ ९९ २२ ४९० ३८३ ,
+९१ ८६००५१७८०१.
इमेल tusharsrikant@gmail.com

शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

मैं कहता हों आंखन देखी - तू कहता कागद की लेखी ! 

 सुभाष को भुनाने कि होड़
  अभी दो ही महीने पहले  पश्चिम बंगाल की सनकी मुख्यमंत्री सुश्री ममता बैनरजी ने नेताजी सुभाष से सम्बंधित पश्चिम बंगाल सरकार कि चन्द फाइलें सार्वजनिक कर दिया. आसन्न चुनावों में ब्रांड सुभाष को भुनाने की गरज से  वाम और कांग्रेस के संभावित गठबंधन के खिलाफ तुर्रे की तरह इसे उछाला. वह जानती ही हैं कि सुभाष बंगाल की जनता के लिए भावनात्मक महत्व का नाम है.
दूसरी तरफ बंगाल में पैर फैलाने को बेताब भारतीय जनता पार्टी भी पीछे कहाँ रहना चाहेगी? भले ही बंगाल की प्रगतिशील जनता ने इस पार्टी को घास नहीं डाली हो. मोदी जी की मोदित्वा का जादू ना तो  दक्षिण में चला था और न पूरब में. बंगाल में केवल बारासात विधानसभा क्षेत्र से अपनी लम्बी पारी की समाजसेवी  और लोकप्रिय नेता की छवि के चलते शमिक भट्टाचार्य ही एक अकेले विधायक इस पार्टी की टिकट पर पिछले दिनों उपचुनाव में  (२०१५ में )चुने गए हैं, पर एक राजनीतिक दल और विचारधारा के तौर पर संघी बिरादरी/गिरह्बंदी को  बंगाल में वैसी सफलता विभाजन के समय से आज तक कभी नहीं मिली थी जैसी कामयाबी इस दल को पंजाब, गुजरात या राजस्थान आदि पश्चिमी राज्यों में मिलती रही. खैर, मोदी ने भी पीछे  न रह जाने के दबाव के चलते सुभाष कार्ड चला और देश विदेश में बसे सुभाष के तमाम परिजनों को दिल्ली बुलवा कर तेवीस जनवरी २०१६ को केंद्र सरकार के पास अब तक 'गोपनीय' रखी रहती आयी  फाइलें सार्वजनिक करने का वादा किया. 
उनका इरादा एक तीर से दो शिकार करने का था. एक तरफ आज तक इन फाइलों को सार्वजनिक न करने की वजह दिखलाते हुए कांग्रेस की छिछालेदर करने की संभावना से उनके मन में लड्डू फूट रहे थे तो दूसरी तरफ तृणमूल कांग्रेस की पहल से जो बढ़त उसे बंगाल में मिलने कि संभावना नज़र आ रही थी उसमें सेंध लगाने से बंगाल में भी कुछ और सीट पाने का सपना साकार होता दिखाई दे  रहा था. याद रहे तेवीस जनवरी सुभाष की जयंती तो है ही, पर पिछली या फिर उससे पहले की तेवीस जनवरी या और पीछे जाने पार १९९८ से २००४ के बीच वाजपेयी के प्रधान्मंत्रित्व काल में इन फाइलों की याद भाजपा को नहीं आयी थी. दर असल इसी वर्ष मार्च अप्रैल में पश्चिम बंगाल में विधान सभा के चुनाव होने हैं.
सुभाष आपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय राजनेता थे. लोग इसीलिए उन्हें आज भी प्यार से 'नेताजी' के संबोधन से याद करते हैं. गांधीजी के नेतृत्वा में अंग्रेजी हुकूमत से समझौते के रास्ते पर  जाते देख कांग्रेस से नाता तोड़ कर उन्होंने वामपंथी फॉरवर्ड ब्लाक पार्टी की स्थापना की थी. इसी बीच दूसरा विश्वा युद्ध शुरू हो चुका था. अतः समय न गवां कर तत्काल कुछ ठोस करने के नेक इरादे से ही वे भूमिगत हो कर नज़रबंदी से निकल भागे और अफगानिस्तान के रास्ते सोवियत रूस जा जोसेफ स्टालीन से मिलने की कोशिश की. इस प्रयास में नाकाम होने के बाद वे जर्मनी पहुंचे. आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना तमाम यूरोप से आये भारतीय क्रांतिकारियों के साथ की. पर नात्ज़ी पार्टी के फासिस्ट विचारधरा से वाकिफ होने के बाद किसी तरह युध्द की खतरनाक स्थितियों में भी जर्मनी से सिंगापुर की लम्बी समुद्रतल से यात्रा पूरी की. वहां वे पिछली पीढ़ी के क्रांतिकारी रास बिहारी बोस के बुलावे पर पहुंचे थे. पर तब तक जापान ने समूचे दक्षिणपूर्वी एशिया पर नियंत्रण हासिल कर लिया था. अब एक फासिस्ट से बच कर आये  सुभाष के सामने अंग्रेजों से लड़ने के लिए दूसरे फासिस्ट - जापान - की मदद लेने का ही विकल्प रह गया था.
इसके बाद की घटनाएं, ख़ासकर वायुयान दुर्घटना आदि की बातें बहुत ही अस्पष्ट हैं. जो भी हो, सुभाष को भारत की अशेष जनता पीढ़ियों से एक राष्ट्रीय नायक का दर्जा देकर अपने मन में संजोये हुए है, इस बात से इनकार नहीं  किया जा सकता.
 आज, पशिम बंगाल में विधान सभा चुनावों के ठीक पहले सुभाषचंद्र बोस से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करने की होड़ के पीछे सत्ताधारियों की खुराफात को ताड़ने की जरूरत है.                  

tushar kanti tusharsrikant@gmail.com

27 Jan (3 days ago)
to asia
 मैं कहता हों आंखन  देखी - तू कहता कागद की लेखी                                       दूसरी क़िस्त 

रोहित वेमुला की आत्महत्या और हमारी ज़मीर  
 रोहित वेमुला ने १८ जनवरी को एक मित्र के हॉस्टल के कमरे में पखे से झूल कर फंसी लगा ली और इस तरह आत्महत्या कर ली. दोस्त के कमरे में इसलिए, क्योंकि उसे अन्य चार डॉक्टरेट स्तर के दलित विद्यार्थियों के साथ यूनिवर्सिटी ऑफ़ हैदराबाद के उपकुलपति के आदेश पर नीलम्बित तो किया ही गया था, उन्हें विश्वविद्यालय के किसी भी भवन तक में प्रवेश करने की मनाही भी की गयी थी. पिछले दिनों इस विश्वविद्यालय के आठ दलित विद्यर्थियोने भी आत्महत्याएं की हैं. पहले घटना की संक्षिप्त जानकारी. 
वेमुला चक्रवर्ती रोहित की आत्महत्या का कारण ज्यादा पेचीदा था. वेमुला चक्रवर्ती रोहित असल में आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन का सक्रीय नेता था. उसकी मां दरजी है और पिता एक निजी अस्पताल में वाचमन. ओबीसी होने के बहाने भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति करते आये बंडारू दत्तात्रेय नामक एक केंद्रीय राज्य मंत्री ने, जो राज्यसभा सदस्य हैं, पिछले अगस्त में पंद्रह दिन के अन्दर दो दो पत्र लिख कर इन छात्रों और उनके संगठन पर कार्रवाई करने की अनुशंसा की. उन्हें राष्ट्रविरोधी, जातिवादी और उग्रवादी कहते हुए पिछले अगस्त से दो बार केन्द्रीय उच्च शिक्षा मंत्री, अर्थात जिसे अब अमेरिकी चाल पर थिरकते हुए हमारे काग रूपी शासक भी 'मानव-संसाधन' मंत्री कह कर इंसान की गरिमा ही को धूसरित कर रहे हैं, उन 'मनु'-स्मृति ईरानी को बंडारू ने ये पत्र लिखे. बाद में उन्होंने कहा कि उन्होंने केवल अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ( ए बी वी पी) के दो प्रतिनिधिमंडलों की शिकायतों को अग्रेषित किया है. स्मृति कैसे विस्मृत हो सकती थीं ? उन्होंने बंडारू का पत्र हैदराबाद विश्वविद्यालय के उप-कुलपति को कार्रवाई करने के लिए भेजा ही नहीं, बल्कि पांच महीने की अवधि में पांच बार उप-कुलपति से की गयी कार्रवाई पर जवाबतलब करते हुए विभागीय स्मरणपत्रों की झडी लगा दी. इन विद्यार्थियों का दोष क्या था? वे सब के सब दलित थे, मेधावी थे, धर्मनिरपेक्ष थे और हिंदुत्व की राजनीति के आलोचक थे. उन्होंने कैम्पस में 'मुजफ्फरनगर अब भी बाकी है' नामक डॉकुमेंट्री फिल्म के प्रदर्शन में हिस्सा लिया था. याकूब मेमन को फांसी दिए जाने का विरोध करते हुए जनवाद में किसी की जान क़ानून के नाम पर लेने के खिलाफ आवाज़ उठाई थी. और हर तरह के मृत्युदंड का विरोध दर्ज किया था.
उनकी इन लोकतांत्रिक अभिव्यक्तियों से नाराज़ ए बी वी पी के नेताओं ने पहले मारपीट और जोर आजमाइश का रास्ता अपनाया. पर जब इसमें कमज़ोर साबित हुए तो पुलिस में झूठी शिकायत लिखवा कर इन युवकों पर आपराधिक मुकाद्दमें दर्ज करते हुए दूसरी तरफ अपने आका बंडारू से शिकायत की. बंडारू मानो इंतज़ार में ही बैठे थे. तुरंत अपनी लेटरहेड पर इन शोध विद्यार्थियों को  राष्ट्रविरोधी, जातिवादी और उग्रवादी आदि घोषित करते हुए इनके खिलाफ कठोर कार्रवाई की अनुशंसा की. सुशील कुमार नामक ए बी वी पी के नेता ने अस्पताल में अपेंडिक्स का ऑपरेशन करवाया पर पुलिस शिकायत में आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन के वेमुला आदि छात्रों द्वारा पीटे  जाने के कारण हुए जख्मों को इस का कारण बताया. उसकी इस झूठ को न तो पुलिस ने माना और ना ही  विश्वविद्यालय ने. उसने अपनी मां के ज़रिये उच्च न्यायालय में भी एक याचिका दायर करवाई. वहां पुलिस और विश्वविद्यालय प्रशासन दोनों ने उसकी  चोटों को सतही और मामूली मान कर एफिडेविट दाखिल की हैं. 
दलितों के लिए आजादी के ६९ साल बाद भी ऐसा सुलूक आम बात है. दलितों की बस्तियां फूंक दी जाती है पर 'सम्मानित और संभ्रांत पृष्ठभूमि' के गुनाहगारों को निर्दोष मान कर उच्च स्तर की अदालतें उन्हें रिहा कर देती आयी हैं. 
पर मैं रोहित की आत्महत्या को दूसरे सन्दर्भ में देखने की धृष्टता कर रहा हूँ. इस बीच तमिलनाडु से भी तीन मेडिकल छात्राओं के सामूहिक आत्महत्या की  खबर सुर्खी बनी. कुछ दिन पहले 'भारत की आइ ए एस / आइ पी एस प्रवेश परीक्षा की कोचिंग क्लास फैक्टरी' के तौर पर बद्नाम राजस्थान के कोटा में करीब चौदह बच्चों द्वारा पिछले दिनों आत्महत्याएं किये जाने की खबर ई थी. आइ ए एस /आइ पी एस बनने के लिए  बच्चों पर इतना अधिक मानसिक दबाव उन्हें अवसाद की ओर और फिर सीधे आत्महत्या तक ले जाता है. पर वह बच्चा कोई भी हो सकता है. तनाव और अवसाद में विद्यार्थियों की आत्महत्याएं चिंताजनक हैं. शिक्षा व्यवस्था में स्तरीकरण की रुझान पर सवालिया निशान ज़रूर लगा जाते हैं. केजी से पीजी तक निःशुल्क समान शिक्षा प्रणाली जैसी अनिल सदगोपाल सरीखे शिक्षाविदों की मांग पर भी  बहस की ज़रुरत है. 
 परन्तु रोहित या उससे पहले हैदराबाद में या रूडकी में, अन्य आइ आइ टी संस्थानों में होने वाली दलित विद्यार्थियों, शोधार्थियों की आत्महत्याएं क्या इन से अलग नहीं हैं? रोहित न तो पहला दलित मेधावी था जिसने आत्माहत्या का रास्ता अपनाया और न ही अंतिम. पर हमारे तथाकथित आधुनिक उच्च शिक्षा के केन्द्रों में दलित/आदिवासियों के साथ की  जानेवाली गैरबराबरी और भेदभावपूर्ण बदसलूकी के पीछे की ब्राह्मणी सामंती मानसिकता से चालित वर्ग/वर्णों की सदियों से चली आती मिथ्या श्रेष्ठता के गुरूर को वर्तमान शासन व्यवस्था और शासक क्या हवा नाहीं दे रहे? जनवादी चेतना की हल्के से आभास से ही समूची राज्य व्यवस्था को सक्रिय कर मासूम और होनहार विद्यार्थियों  पर टूट पड़ने की प्रवृत्ति हमें कहाँ ले जाएगी !     
 
        तुषार

tushar kanti tusharsrikant@gmail.com

बुधवार, 27 जनवरी 2016

दख़ल की दुनिया: उच्च शिक्षा में ऊंच-नीच

दख़ल की दुनिया: उच्च शिक्षा में ऊंच-नीच

 मैं कहता हों आंखन
 देखी - तू कहता कागद की लेखी
    
                     
                     
       
दूसरी क़िस्त 

रोहित वेमुला की
आत्महत्या और हमारी ज़मीर
  
 रोहित वेमुला ने १८ जनवरी को एक मित्र पर्थ सारथि
के हॉस्टल के कमरे में पखे से झूल कर फंसी लगा ली और इस तरह आत्महत्या कर ली.
दोस्त के कमरे में इसलिए
, क्योंकि उसे और चार डॉक्टरेट स्तर के दलित
विद्यार्थियों के साथ यूनिवर्सिटी ऑफ़ हैदराबाद के उपकुलपति के आदेश पर नीलम्बित तो
किया ही गया था
, उन्हें विश्वविद्यालय के किसी भी भवन तक में
प्रवेश करने की मनाही भी की गयी थी. पिछले दिनों इस विश्वविद्यालय के आठ दलित
विद्यर्थियोने भी आत्महत्याएं की हैं. पहले घटना की संक्षिप्त जानकारी.
 
वेमुला चक्रवर्ती
रोहित की आत्महत्या का कारण ज्यादा पेचीदा था. वेमुला चक्रवर्ती रोहित असल में
आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन का सक्रीय नेता था.उसकी मां दरजी है और पिता एक निजी
अस्पताल में वाचमन. ओबीसी होने के बहाने भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति करते आये
बंडारू दत्तात्रेय नामक एक केंद्रीय राज्य मंत्री ने
, जो राज्यसभा सदस्य हैं, पिछले अगस्त में पंद्रह दिन के अन्दर दो दो पत्र
लिख कर इन छात्रों और उनके संगठन पर कार्रवाई करने की अनुशंसा की. उन्हें
राष्ट्रविरोधी
, जातिवादी और उग्रवादी कहते हुए पिछले अगस्त से दो
बार केन्द्रीय उच्च शिक्षा मंत्री
, जिसे
अब अमेरिकी चाल पर थिरकते हुए हमारे काग रूपी शासक भी
'मानव-संसाधन' मंत्री
कह कर इंसान की गरिमा ही को धूसरित कर रहे हैं
, उन
'मनु'-स्मृति
ईरानी को बंडारू ने ये पत्र लिखे. बाद में उन्होंने कहा कि उन्होंने केवल अखिल
भारतीय विद्यार्थी परिषद् (
 ए बी वी पी) के दो
प्रतिनिधिमंडलों की शिकायतों को अग्रेषित किया है. स्मृति कैसे विस्मृत हो सकती
थीं
? उन्होंने बंडारू के पत्र को हैदराबाद
विश्वविद्यालय के उप-कुलपति को कार्रवाई करने के लिए भेजा ही नहीं
, बल्कि पांच महीने की अवधि में पांच बार उप-कुलपति
से की गयी कार्रवाई पर जवाबतलब करते हुए विभागीय स्मरणपत्रों की झडी लगा दी. इन
विद्यार्थियों का दोष क्या था
? वे सब के सब दलित थे, मेधावी थे, धर्मनिरपेक्ष
थे और हिंदुत्व की राजनीति के आलोचक थे. उन्होंने कैम्पस में
'मुजफ्फरनगर अब भी बाकी है' नामक डॉकुमेंट्री फिल्म के प्रदर्शन में हिस्सा
लिया था. याकूब मेमन को फांसी दिए जाने का विरोध करते हुए जनवाद में किसी की जान
क़ानून के नाम पर लेने के खिलाफ आवाज़ उठाई थी. और हर तरह के मृत्युदंड का विरोध
दर्ज किया था.
उनकी इन लोकतांत्रिक
अभिव्यक्तियों से नाराज़ ए बी वी पी के नेताओं ने पहले मारपीट और जोर आजमाइश का
रास्ता अपनाया. पर जब इसमें कमज़ोर साबित हुए तो पुलिस में झूठी शिकायत लिखवा कर इन
युवकों पर आपराधिक मुकाद्दमें दर्ज करते हुए दूसरी तरफ अपने आका बंडारू से शिकायत
की. बंडारू मानो इंतज़ार मेही बैठे थे. तुरंत अपनी लेटरहेड पर इन शोध विद्यार्थियों
को  राष्ट्रविरोधी
, जातिवादी और उग्रवादी आदि घोषित करते हुए इनके
खिलाफ कठोर कार्रवाई की अनुशंसा की. सुशील कुमार नामक ए बी वी पी के नेता ने
अस्पताल में अपेंडिक्स का ऑपरेशन करवाया पर पुलिस शिकायत में आंबेडकर स्टूडेंट्स
एसोसिएशन के वेमुला आदि छात्रों द्वारा पीटे  जाने के कारण हुए जख्मों को इस
का कारण बताया. उसकी इस झूठ को न तो पुलिस ने माना और ना ही
  विश्वविद्यालय ने. उसने अपनी मां के ज़रिये उच्च
न्यायालय में भी एक याचिका दयर करवाई. वहां पुलिस और विश्वविद्यालय प्रशासन दोनों
ने उसके चोटों को सतही और मामूली मान कर एफिडेविट दाखिल की हैं.
 
दलितों के लिए आजादी
के ६९ साल बाद भी ऐसा सुलूक आम बात है. दलितों की बस्तियां फूंक दी जाती है पर
'सम्मानित और संभ्रांत पृष्ठभूमि' के गुनाहगारों को निर्दोष मान कर उच्च स्तर की
अदालतें उन्हें रिहा कर देती आयी हैं.
 
पर मैंने रोहित की
आत्महत्या को दुसरे सन्दर्भ में देखने की धृष्टता
 कर रहा हूँ. इस बीच तमिलनाडु से भी तीन मेडिकल
छात्राओं के सामूहिक आत्महत्या की  खबर सुर्खी बनी. कुछ दिन पहले
'भारत की आइ ए एस / आइ पी एस प्रवेश परीक्षा की
कोचिंग क्लास फैक्टरी
' के तौर पर बद्नाम राजस्थान के कोटा में करीब चौदह
बच्चों द्वारा पिछले दिनों आत्महत्याएं किये जाने की खबर ई थी.आइ ए एस /आइ पी एस
बनने के लिए  बच्चों पर इतना अधिक मानसिक दबाव उन्हें अवसाद की ओर और फिर
सीधे आत्महत्या तक ले जाता है. पर वह बच्चा कोई भी हो सकता है. तनाव और अवसाद में
विद्यार्थियों की आत्महत्याएं चिंताजनक हैं. शिक्षा व्यवस्था में स्तरीकरण की
रुझान पर सवालिया निशान ज़रूर लगा जाते हैं.
शिक्षा
व्यवस्था में स्तरीकरण की रुझान पर सवालिया निशान ज़रूर लगा जाते हैं. केजी से पीजी
तक निःशुल्क समान शिक्षा प्रणाली जैसी अनिल सदगोपाल सरीखे शिक्षाविदों की मांग पर
भी  बहस की ज़रुरत है.
 

परन्तु रोहित या उससे
पहले हैदराबाद में या रूरकी में
, अन्य आइ आइ टी
संस्थानों में होने वाली दलित विद्यार्थियों
, शोधार्थियों
की आत्महत्याएं क्या इन से अलग नहीं हैं
? रोहित
न तो पहला दलित मेधावी था जिसने आत्माहत्या का रास्ता अपनाया और न ही अंतिम. पर
हमारे तथाकथित आधुनिक उच्च शिक्षा के केन्द्रों में दलित/आदिवासियों के साथ की
 जानेवाली गैरबराबरी और भेदभावपूर्ण बदसलूकी के पीछे की ब्राह्मणी सामंती
मानसिकता से चालित वर्ग/वर्णों की सदियों से चली आती मिथ्या श्रेष्ठता के गुरूर को
वर्तमान शासन व्यवस्था और शासक क्या हवा नाहीं दे रहे
? जनवादी चेतना की हल्के से आभास से ही समूची राज्य
व्यवस्था को सक्रिय कर मासूम और होनहार विद्यार्थियों  पर टूट पड़ने की
प्रवृत्ति हमें कहाँ ले जाएगी !  
  

 
               


तुषार