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लेखन के खतरे
आज लेखन एक साहसिक और जोखिम भरा व्यवसाय है और जोखिम उठाये बिना कुछ भी संभव नहीं.चित्र काफी कुछ कहता है ....
लेखन के खतरे
आज लेखन एक साहसिक और जोखिम भरा व्यवसाय है और जोखिम उठाये बिना कुछ भी संभव नहीं.चित्र काफी कुछ कहता है ....
बुधवार, 21 फ़रवरी 2024
गुरुवार, 24 मार्च 2022
रविवार, 26 अगस्त 2018
23 अगस्त, 2018
मैं क्यों लिखता हूं
लेखन का सबब अथवा मैं क्यों लिखता हूँ ?
तुषार कांति
स्कूल के दिनों में अन्य स्कूल की एक लड़की के प्रति आकर्षण को अस्सी प्रेम कविताओं के माध्यम से मुखर किया था। पर जब मेरी माँ और भाई की एक दिन उस फाइल पर नज़र पड़ी और मेरे भाई ने कहा कि ‘एक लड़की के लिए जो इतना प्रयास व्यर्थ गँवाया है यदि उस का छोटा सा हिस्सा भी मैंने समाज के बारे में लिख कर सँजोया होता तो वह प्रयास बेशक सार्थक होता’, तो इस एक टिप्पणी ने मेरे लेखन के प्रति नज़रिये को ही हमेशा हमेशा के लिए बदल दिया।
स्कूल के दिनों की बाते छोड़ दें, तो मैंने 16 वर्ष की उम्र में पहला लेख लिखा। यह आलेख पाठकों की प्रतिक्रियाओं वाले हिस्से में पटना से प्रकाशित पत्रिका फिलहाल में प्रकाशित हुआ। इस आलेख में मैंने अपने जिले की समस्याओं का उल्लेख किया था। इस लेख के छपने की खबर भी मेरे जीवन में एक जबर्दस्त बदलाव लाने वाला वाकया सिद्ध होगी, कौन जानता था? हुआ यों की पाक्षिक फिलहाल ने कन्ट्रिब्यूटर्स कॉपी डाक से उस पते पर भेज दी जहां मैं और मेरे बड़े भाई साहब हैदराबाद में उन दिनों रहते थे। एक शाम जब मैं कॉलेज से घर लौटा तो देखा कि पत्रिका बीच से फाड़ कर रद्दी में डाल दी गई है। हुआ यह था कि पत्रिका भाईसाहब के रहते पोस्टमैन दे गया था। उनकी नज़र जब मेरे लेख पर पड़ी तो उन्हें मेरे पढ़ाई से भटकने कि फिक्र हुई। मुझे हतोत्साहित करने के लिए उन्होंने पत्रिका के दो टुकड़े कर डाले और उसे रद्दी की टोकरी में फेंक दिया।
मेरे राजनीतिक विचारों के चलते मैं कक्षा दसवीं में बोर्ड की परीक्षा से एक माह पहले मेरे हिन्दी के शिक्षक प्रख्यात वामपंथी हिन्दी कवि वेणु गोपाल और अन्य पाँच-छह छात्रों के साथ जेल जा चुका था। मुक़द्दमा 1972 तक एक साल चला और मैं निर्दोष छूटकर आगे की पढ़ाई के लिए अपने छोटे से औद्योगिक कस्बे “कागजनगर” से हैदराबाद चला गया। रहने को भाई साहब तब अपने कारखाने के पास ही तारनाका में किराये के एक कमरे के मकान में रहते थे। पर मेरे इंस्टीट्यूट का इलाका चूंकि विद्यानगर था इसलिए हम जल्द ही विद्यानगर में एक किराए के कमरे में रहने आ गए। यहीं पर यह वाकया हुआ और मेरे निजी मामलों में इसे एक गैरज़रूरी हस्तक्षेप मान कर मैंने उसी समय घर से वॉकआउट कर दिया। तब नहीं जनता था कि यह ‘वॉकआउट’ जीवन भर का हो गया। मैंने तत्काल इंस्टीट्यूट के हॉस्टल में एक मित्र के पास पनाह ली और अगले ही दिन से कागजी कार्रवाइयों के बाद मैं बाकायदा हॉस्टल में रहने का हकदार भी हो गया।
इस बीच तेलुगु पत्रिका ‘पिलुपु’ (पुकार) में छप रही लेखमाला से मैं काफी प्रभावित हुआ और पाँच लेखों का अनुवाद मैंने कर डाला। इस अनुवाद के बाद ही मुझे इस बात का इल्म हुआ कि आखिर मैं लिखता क्यों हूँ? इससे पहले स्कूल में कविताएँ लिखी थीं। कवि वेणु गोपाल का छात्र होने के कारण कविता करना सहज सम्भव भी था। पर तब एक आवेग से ज़्यादा कुछ नहीं होता। पर अब चूंकि एक उद्देश्य के चलते सोच समझ कर लिखने की बारी आयी थी, इसलिए लिखने का कारण, उसका सबब एक जरूरी आयाम बनकर मेरे ज़ेहन में दस्तक देने लगा। मैं ज़रा गहराई में जा कर सोचने लगा।
वामपंथी कवि वेणुगोपाल, पिताजी का मास्टर सूर्यसेन की अनुशीलनी दल से छात्र जीवन में रहा संबंध, मझले मामा की कम्यूनिस्ट आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी और हाई - स्कूल के प्रिंसिपाल तक का छात्र जीवन में वामपंथ से प्रभावित हो कर स्वतन्त्रता आंदोलन में हिस्सा लेना, इन सब का कुल मिलकर मेरे किशोर मन पर जो प्रभाव पड़ता रहा उससे अनायास ही मुझमें वामपंथी क्रांतिकारी रुझान पैदा हो गई थी। उसी समय पहले नक्सलबारी और फिर श्रीकाकुलम के संघर्षों ने रही सही कसर पूरी कर दी। मैं सोलहवें बरस की उम्र में कदम रखने से पहले ही व्यवस्था विरोधी होने का तमगा पा कर जेल भी जा चुका था। एक तरह से मेरे जीवन की दिशा तभी तय हो चुकी थी।
खैर, संगठन के काम में व्यस्तताओं के भार तले जो क्षीण सी साहित्यिक धारा मेरे भीतर सोयी पड़ी थी, दोबारा 1977 में गिरफ्तार होते ही वह प्रवाहमान हो गई। 77 से 80 के बीच दो बरस फिर जेल मे रहना पड़ा। इसी दौरान क्रांतिकारी राजनीति के प्रभाव से बस्तर की सीमा से लगे तेलंगाना के आदिवासियों में आ रहे परिवर्तन को दर्ज करने वाले एक प्लॉट पर काम शुरू किया जो 80 के अंत में एक कहानी के शक्ल में सामने आई। कहानी, जाहिर है, तेलुगु भाषा में लिखी थी। यह मेरी पहली कहानी थी। क्रांतिकारी कवि वरवर राव उन दिनों वरंगल से ‘सृजना’ नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका निकाला करते थे। मेरी कहानी को उन्होंने हाथों-हाथ लिया और जनवरी 1981 के अंक में ‘गंगाजिम्मा’ शीर्षक से प्रकाशित किया। कहानी कुछ लंबी थी। करीब दस पृष्ठों की। कहानी प्रकाशित होने के बाद उसके शिल्प और कथ्य की वजह से काफी चर्चित हुई।
1980-90 के दौरान पत्रकारिता के पहले प्रयास के अंतर्गत नागपुर से छपने वाले एक हिन्दी अखबार में मजदूर वर्ग की समस्याओं पर कुछ समय तक एक साप्ताहिक कॉलम लिखता रहा। किसान नेता शरद जोशी द्वारा भूमंडलीकरण का समर्थन किए जाने के बाद शेतकरी संगठना और शरद जोशी की राजनीति पर एक विश्लेषणात्मक आलेख लिखा। कैसे जोशी का आंदोलन शुरू से ही धनी, सम्पन्न और पूंजीवादी फार्मरों के वर्ग-हितों की ही पैरोकारी करता रहा है और कैसे भूमंडलीकरण समर्थन से किसानों की बरबादी अवश्यंभावी हो रही है, उस लेख में इन्हीं बातों की चर्चा थी। इतिहास गवाह है की भूमंडलीकारण ने मध्य भारत के किसानों की ही नहीं, समूचे भारत के किसानों की कमर तोड़ दी। पिछले तीन दशकों में करीब चार लाख किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा। विदर्भ के किसानों को शरदजोशी की घातक राजनीति के बारे में आगाह करनेवाला यह लेख शायद अपनी तरह का पहला ही लेख था, जिसने एक हद तक विदर्भ के किसानों के पक्ष में एक मैदान बनाने का काम किया।
हिन्दी में मेरा लिखना पहले बनारस और फिर दिल्ली से प्रकाशित होती रही अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका ‘आमुख’ के लिए लिखने के साथ शुरू हुआ और जारी रहा। अमुख के लिए पहले अनुवाद, और फिर तेलुगु के क्रांतिकारी कवि चेरबंडाराजू की कविताओं के अनुवाद और उन की याद में लिखे गए एक रेखाचित्र के तौर पर शुरू हुआ। छापामारों के जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं को कथाओं के रूप में पिरो कर 90 के दशक में मैंने कुछ और कहानियों की रचना की। विदर्भ से सटे ‘दंडकरण्य’ के आदिवासी किसान संघर्ष ही इन कहानियों की प्रेरणा भी थी और विषयवस्तु भी।
2007 से 13 तक एक और बार करीब साढ़े-पाँच साल जेल में बिता कर फरवरी 2013 में मैं सभी आरोपों से मुक्त हो कर बाहरी दुनिया में लौटा। उस दौरान घटी एक घटना को एक व्यक्तिगत अनुभव के तौर पर दर्ज करते हुए अङ्ग्रेज़ी पत्रिका ‘तहलका’ के एक कॉलम ‘पर्सनल हिस्टोरीज़’ के लिए एक कहानी लिखी। मूल हिन्दी से मैंने ही इसका अनुवाद किया था। यह कहानी इतनी पसंद की गई की एक महीने के अंदर-अंदर तेलुगु, मराठी और बाँगला भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हुआ। सामाजिक विद्रूपताओं को महज़ दिखाने भर के लिए कहानी लिखने का विचार मेरे लिए अधूरा और अर्थहीन प्रयास प्रतीत होता है। मैं कहानी को सामाजिक परिवर्तन का औज़ार के रूप में देखता हूँ। इसी नज़रिये से मेरा लेखन जारी रहा है। मैं मानता आया हूँ कि साहित्य समाज का महज़ आईना ही नहीं, समाज-परिवर्तन का झंडाबरदार भी होता है। राजनीति अगर तत्कालीन समाज और अर्थनीतिक दिशा की अभिव्यक्ति है तो साहित्य आगामी समाज के बीज का काम करती है, गर्भस्थ समाज के लिए दाई का काम करती है। इस दृष्टि के अभाव में जो कुछ भी लिखा जाए, उसे वर्तमान संकटग्रस्त, विषमतामूलक समाज की विष्टा भर कहा जा सकता है। जूठन साहित्य।
मेरे लिए लेखन जीवन का ही विस्तार है। लेखन कर्म क्रांतिकर्म का जरूरी हिस्सा है। जब राजधानी दिल्ली में मासूम बच्चियाँ भूख से तड़प कर मर रही हैं, तब आप ही दिल पर हाथ रख कर कहिए, चाँद-सितारों की काल्पनिक और रूमानी दुनिया की रचना क्या आत्म-वंचना या इस से भी भारी अपराध, जन-वंचना नहीं कहलाएगी। इस तरह का लेखन विदूषक-भांड की तरह अपनी ज़मीर को गिरवी रख कर शासक (वर्ग) के चारण गायन के समान है। हाल के दिनों में दो प्रसून नज़र आए। एक यदि चारण गायक की भूमिका में नज़र आया तो दूसरे ने अपनी पत्रकारिता से शासकों का कोप-भाजन होने का खतरा मोल लिया। इन दोनों में कौन जनमानस में चिरस्थायी बन जाएगा आप सहज ही अंदाज़ा लगा सकते हैं।
मानव जीवन अपनी देश-काल की स्थिति से निर्देशित और निर्धारित होता है। तत्कालीन समाज और देश-काल से निर्लिप्त या निरपेक्ष वह कभी नहीं होता है। उनसे प्रभावित होता और साथ ही उन्हें प्रभावित करता चलता है। साहित्य के लिए भी यही बात लागू होती है। लेखन निर्लिप्त या निरपेक्ष नहीं हो सकता। उसे उसके अस्तित्व की वजह चाहिए होती है। अपने वजूद का सबब चाहिए होता है। लेखन कर्म और साहित्य रचना की मार्क्सवादी भौतिकवादी मीमांसा मैं इसी को मानता हूँ। इसी वजह मेरी लेखनी रोहित वेमुला के पक्ष में मुखर होती है’ तंजानियाई युवती का सामूहिक शीलहरण करनेवालों के खिलाफ उठती है; सुभाष को भुनाने की सत्ताधारी-वर्ग के विभिन्न धड़ों की नीचताभरी हरकत को बेनकाब करने के लिए चलती है; और महिषासुर के बहाने मिथकों की राजनीति को उजागर करने के लिए प्रवाहित होती है। दलितों और आदिवासियों के हाशिये से निकल कर मुख्यभूमि पर आने के संघर्ष को दर्ज करती है। मेरे लेखन के यही कारण हैं, यही मेरे लिखने का सबब है।
लेखन को एक पेशे के तौर पर अपनाने के बाद भी इन दिक-सूचियों के दायरे मे ही बने रहने की पुरजोर कोशिश करता हूँ। आप जानते ही हैं की हिन्दी के लेखक का पेट लेखन से नहीं भरता, इसलिए अनुवाद से आजीविका चलाने की कोशिश करता आया हूँ। उदास शाम को सुनहरे भोर की ओर ले चलने का प्रयास ही मुझे लिखने को मजबूर करता रहा है।
श्रम के ही एक परिमार्जित रूप के तौर पर मैं लेखन कर्म को देखता हूँ। जिस तरह गीत, नृत्य, नाटक आदि कला के विभिन्न रूप श्रम से ही उपजे और श्रम की कष्टप्रद प्रक्रिया को सहन-योग्य बनाने, विराम देने के काम आते हैं, लेखन भी इन से अलग नहीं। अब वह चाहे कविता हो, कथा-उपन्यास रचना हो या तथ्यात्मक लेख, सामयिक रिपोर्टिंग और अखबारी लेखन, सभी में अदृश्य सूत्र की तरह यह सुकून देने वाली बात मौजूद रहती है। सूचना प्रौद्योगिकी के इस आभासी युग में भी यह मूल चरित्र बदलता नहीं।
सरकारी पुरस्कारों की कामना या पुरस्कार प्राप्ति के उपरांत भी जो लेखन पाँच सौ या एक हज़ार प्रतियों की सीमा को लांघ नहीं पाता और जो रचना पुस्तकालयों में कैद होकर रह जाती हैं, उन से कहीं बेहतर मैं उन रचनाओं और रचनाकारों को मानता हूँ जो हजारों श्रोताओं की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अपनी पंक्तियों को सान देते हैं। पर ज्यों ही लेखन फूहड़पन या अश्लीलता की सीमा लांघने को होता है, अकाल-मरण को प्राप्त होता है। हिन्दी के लेखकों से मैं इस मौके पर पूछना चाहूँगा कि किसान अत्महत्या जैसे संवेदनशील विषयवस्तु पर, डायन के नाम पर होती हत्याओं पर कितनी रचनाएँ अब तक दर्ज हुई हैं? “भीड़शाही” की दरिंदगी के खिलाफ कितनी रचनाएँ आई हैं?
चूंकि प्रेम भी मानव-जीवन के एक आयाम के बतौर ही उपजता है, इसलिए प्रेम कविताओं से भी मुझे परहेज नहीं है। मुस्कान, भाषा, लिपि और प्रेम जैसी उदात्त भावना ही तो मनुष्य को अन्य पशुओं से अलग बनाती है। जैसा कि इस आलेख की शुरुआती पंक्तियों में दर्ज किया है, मैंने प्रेम कविताओं से ही मेरे रचनाकर्म की नींव रखी थी। पर ऐसा माननेवालों में मैं एक हूँ कि प्रेम के बहाने जीवन की कठोर वास्तविकताओं से मुंह फेर लेना रचनाकार के लिए अवांछनीय है ।
अंत में मैं संपादक सत्या के प्रति आभार व्यक्त किए बिना अपनी लेखनी को विराम देना धृष्टता मानता हूँ जिन्होंने मुझे उम्र के इस पड़ाव पर इस लायक समझा कि मेरे लेखन के सबब पर दो-टूक लिखने का आग्रह किया। आभार व्यक्त करने के साथ अपनी लेखनी को यहीं विश्राम देता हूँ।
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लेखन का सबब अथवा मैं क्यों लिखता हूँ ?
तुषार कांति
स्कूल के दिनों में अन्य स्कूल की एक लड़की के प्रति आकर्षण को अस्सी प्रेम कविताओं के माध्यम से मुखर किया था। पर जब मेरी माँ और भाई की एक दिन उस फाइल पर नज़र पड़ी और मेरे भाई ने कहा कि ‘एक लड़की के लिए जो इतना प्रयास व्यर्थ गँवाया है यदि उस का छोटा सा हिस्सा भी मैंने समाज के बारे में लिख कर सँजोया होता तो वह प्रयास बेशक सार्थक होता’, तो इस एक टिप्पणी ने मेरे लेखन के प्रति नज़रिये को ही हमेशा हमेशा के लिए बदल दिया।
तुषार कान्ति |
स्कूल के दिनों की बाते छोड़ दें, तो मैंने 16 वर्ष की उम्र में पहला लेख लिखा। यह आलेख पाठकों की प्रतिक्रियाओं वाले हिस्से में पटना से प्रकाशित पत्रिका फिलहाल में प्रकाशित हुआ। इस आलेख में मैंने अपने जिले की समस्याओं का उल्लेख किया था। इस लेख के छपने की खबर भी मेरे जीवन में एक जबर्दस्त बदलाव लाने वाला वाकया सिद्ध होगी, कौन जानता था? हुआ यों की पाक्षिक फिलहाल ने कन्ट्रिब्यूटर्स कॉपी डाक से उस पते पर भेज दी जहां मैं और मेरे बड़े भाई साहब हैदराबाद में उन दिनों रहते थे। एक शाम जब मैं कॉलेज से घर लौटा तो देखा कि पत्रिका बीच से फाड़ कर रद्दी में डाल दी गई है। हुआ यह था कि पत्रिका भाईसाहब के रहते पोस्टमैन दे गया था। उनकी नज़र जब मेरे लेख पर पड़ी तो उन्हें मेरे पढ़ाई से भटकने कि फिक्र हुई। मुझे हतोत्साहित करने के लिए उन्होंने पत्रिका के दो टुकड़े कर डाले और उसे रद्दी की टोकरी में फेंक दिया।
मेरे राजनीतिक विचारों के चलते मैं कक्षा दसवीं में बोर्ड की परीक्षा से एक माह पहले मेरे हिन्दी के शिक्षक प्रख्यात वामपंथी हिन्दी कवि वेणु गोपाल और अन्य पाँच-छह छात्रों के साथ जेल जा चुका था। मुक़द्दमा 1972 तक एक साल चला और मैं निर्दोष छूटकर आगे की पढ़ाई के लिए अपने छोटे से औद्योगिक कस्बे “कागजनगर” से हैदराबाद चला गया। रहने को भाई साहब तब अपने कारखाने के पास ही तारनाका में किराये के एक कमरे के मकान में रहते थे। पर मेरे इंस्टीट्यूट का इलाका चूंकि विद्यानगर था इसलिए हम जल्द ही विद्यानगर में एक किराए के कमरे में रहने आ गए। यहीं पर यह वाकया हुआ और मेरे निजी मामलों में इसे एक गैरज़रूरी हस्तक्षेप मान कर मैंने उसी समय घर से वॉकआउट कर दिया। तब नहीं जनता था कि यह ‘वॉकआउट’ जीवन भर का हो गया। मैंने तत्काल इंस्टीट्यूट के हॉस्टल में एक मित्र के पास पनाह ली और अगले ही दिन से कागजी कार्रवाइयों के बाद मैं बाकायदा हॉस्टल में रहने का हकदार भी हो गया।
इस बीच तेलुगु पत्रिका ‘पिलुपु’ (पुकार) में छप रही लेखमाला से मैं काफी प्रभावित हुआ और पाँच लेखों का अनुवाद मैंने कर डाला। इस अनुवाद के बाद ही मुझे इस बात का इल्म हुआ कि आखिर मैं लिखता क्यों हूँ? इससे पहले स्कूल में कविताएँ लिखी थीं। कवि वेणु गोपाल का छात्र होने के कारण कविता करना सहज सम्भव भी था। पर तब एक आवेग से ज़्यादा कुछ नहीं होता। पर अब चूंकि एक उद्देश्य के चलते सोच समझ कर लिखने की बारी आयी थी, इसलिए लिखने का कारण, उसका सबब एक जरूरी आयाम बनकर मेरे ज़ेहन में दस्तक देने लगा। मैं ज़रा गहराई में जा कर सोचने लगा।
वामपंथी कवि वेणुगोपाल, पिताजी का मास्टर सूर्यसेन की अनुशीलनी दल से छात्र जीवन में रहा संबंध, मझले मामा की कम्यूनिस्ट आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी और हाई - स्कूल के प्रिंसिपाल तक का छात्र जीवन में वामपंथ से प्रभावित हो कर स्वतन्त्रता आंदोलन में हिस्सा लेना, इन सब का कुल मिलकर मेरे किशोर मन पर जो प्रभाव पड़ता रहा उससे अनायास ही मुझमें वामपंथी क्रांतिकारी रुझान पैदा हो गई थी। उसी समय पहले नक्सलबारी और फिर श्रीकाकुलम के संघर्षों ने रही सही कसर पूरी कर दी। मैं सोलहवें बरस की उम्र में कदम रखने से पहले ही व्यवस्था विरोधी होने का तमगा पा कर जेल भी जा चुका था। एक तरह से मेरे जीवन की दिशा तभी तय हो चुकी थी।
खैर, संगठन के काम में व्यस्तताओं के भार तले जो क्षीण सी साहित्यिक धारा मेरे भीतर सोयी पड़ी थी, दोबारा 1977 में गिरफ्तार होते ही वह प्रवाहमान हो गई। 77 से 80 के बीच दो बरस फिर जेल मे रहना पड़ा। इसी दौरान क्रांतिकारी राजनीति के प्रभाव से बस्तर की सीमा से लगे तेलंगाना के आदिवासियों में आ रहे परिवर्तन को दर्ज करने वाले एक प्लॉट पर काम शुरू किया जो 80 के अंत में एक कहानी के शक्ल में सामने आई। कहानी, जाहिर है, तेलुगु भाषा में लिखी थी। यह मेरी पहली कहानी थी। क्रांतिकारी कवि वरवर राव उन दिनों वरंगल से ‘सृजना’ नामक साहित्यिक मासिक पत्रिका निकाला करते थे। मेरी कहानी को उन्होंने हाथों-हाथ लिया और जनवरी 1981 के अंक में ‘गंगाजिम्मा’ शीर्षक से प्रकाशित किया। कहानी कुछ लंबी थी। करीब दस पृष्ठों की। कहानी प्रकाशित होने के बाद उसके शिल्प और कथ्य की वजह से काफी चर्चित हुई।
1980-90 के दौरान पत्रकारिता के पहले प्रयास के अंतर्गत नागपुर से छपने वाले एक हिन्दी अखबार में मजदूर वर्ग की समस्याओं पर कुछ समय तक एक साप्ताहिक कॉलम लिखता रहा। किसान नेता शरद जोशी द्वारा भूमंडलीकरण का समर्थन किए जाने के बाद शेतकरी संगठना और शरद जोशी की राजनीति पर एक विश्लेषणात्मक आलेख लिखा। कैसे जोशी का आंदोलन शुरू से ही धनी, सम्पन्न और पूंजीवादी फार्मरों के वर्ग-हितों की ही पैरोकारी करता रहा है और कैसे भूमंडलीकरण समर्थन से किसानों की बरबादी अवश्यंभावी हो रही है, उस लेख में इन्हीं बातों की चर्चा थी। इतिहास गवाह है की भूमंडलीकारण ने मध्य भारत के किसानों की ही नहीं, समूचे भारत के किसानों की कमर तोड़ दी। पिछले तीन दशकों में करीब चार लाख किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा। विदर्भ के किसानों को शरदजोशी की घातक राजनीति के बारे में आगाह करनेवाला यह लेख शायद अपनी तरह का पहला ही लेख था, जिसने एक हद तक विदर्भ के किसानों के पक्ष में एक मैदान बनाने का काम किया।
हिन्दी में मेरा लिखना पहले बनारस और फिर दिल्ली से प्रकाशित होती रही अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका ‘आमुख’ के लिए लिखने के साथ शुरू हुआ और जारी रहा। अमुख के लिए पहले अनुवाद, और फिर तेलुगु के क्रांतिकारी कवि चेरबंडाराजू की कविताओं के अनुवाद और उन की याद में लिखे गए एक रेखाचित्र के तौर पर शुरू हुआ। छापामारों के जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं को कथाओं के रूप में पिरो कर 90 के दशक में मैंने कुछ और कहानियों की रचना की। विदर्भ से सटे ‘दंडकरण्य’ के आदिवासी किसान संघर्ष ही इन कहानियों की प्रेरणा भी थी और विषयवस्तु भी।
2007 से 13 तक एक और बार करीब साढ़े-पाँच साल जेल में बिता कर फरवरी 2013 में मैं सभी आरोपों से मुक्त हो कर बाहरी दुनिया में लौटा। उस दौरान घटी एक घटना को एक व्यक्तिगत अनुभव के तौर पर दर्ज करते हुए अङ्ग्रेज़ी पत्रिका ‘तहलका’ के एक कॉलम ‘पर्सनल हिस्टोरीज़’ के लिए एक कहानी लिखी। मूल हिन्दी से मैंने ही इसका अनुवाद किया था। यह कहानी इतनी पसंद की गई की एक महीने के अंदर-अंदर तेलुगु, मराठी और बाँगला भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हुआ। सामाजिक विद्रूपताओं को महज़ दिखाने भर के लिए कहानी लिखने का विचार मेरे लिए अधूरा और अर्थहीन प्रयास प्रतीत होता है। मैं कहानी को सामाजिक परिवर्तन का औज़ार के रूप में देखता हूँ। इसी नज़रिये से मेरा लेखन जारी रहा है। मैं मानता आया हूँ कि साहित्य समाज का महज़ आईना ही नहीं, समाज-परिवर्तन का झंडाबरदार भी होता है। राजनीति अगर तत्कालीन समाज और अर्थनीतिक दिशा की अभिव्यक्ति है तो साहित्य आगामी समाज के बीज का काम करती है, गर्भस्थ समाज के लिए दाई का काम करती है। इस दृष्टि के अभाव में जो कुछ भी लिखा जाए, उसे वर्तमान संकटग्रस्त, विषमतामूलक समाज की विष्टा भर कहा जा सकता है। जूठन साहित्य।
मेरे लिए लेखन जीवन का ही विस्तार है। लेखन कर्म क्रांतिकर्म का जरूरी हिस्सा है। जब राजधानी दिल्ली में मासूम बच्चियाँ भूख से तड़प कर मर रही हैं, तब आप ही दिल पर हाथ रख कर कहिए, चाँद-सितारों की काल्पनिक और रूमानी दुनिया की रचना क्या आत्म-वंचना या इस से भी भारी अपराध, जन-वंचना नहीं कहलाएगी। इस तरह का लेखन विदूषक-भांड की तरह अपनी ज़मीर को गिरवी रख कर शासक (वर्ग) के चारण गायन के समान है। हाल के दिनों में दो प्रसून नज़र आए। एक यदि चारण गायक की भूमिका में नज़र आया तो दूसरे ने अपनी पत्रकारिता से शासकों का कोप-भाजन होने का खतरा मोल लिया। इन दोनों में कौन जनमानस में चिरस्थायी बन जाएगा आप सहज ही अंदाज़ा लगा सकते हैं।
मानव जीवन अपनी देश-काल की स्थिति से निर्देशित और निर्धारित होता है। तत्कालीन समाज और देश-काल से निर्लिप्त या निरपेक्ष वह कभी नहीं होता है। उनसे प्रभावित होता और साथ ही उन्हें प्रभावित करता चलता है। साहित्य के लिए भी यही बात लागू होती है। लेखन निर्लिप्त या निरपेक्ष नहीं हो सकता। उसे उसके अस्तित्व की वजह चाहिए होती है। अपने वजूद का सबब चाहिए होता है। लेखन कर्म और साहित्य रचना की मार्क्सवादी भौतिकवादी मीमांसा मैं इसी को मानता हूँ। इसी वजह मेरी लेखनी रोहित वेमुला के पक्ष में मुखर होती है’ तंजानियाई युवती का सामूहिक शीलहरण करनेवालों के खिलाफ उठती है; सुभाष को भुनाने की सत्ताधारी-वर्ग के विभिन्न धड़ों की नीचताभरी हरकत को बेनकाब करने के लिए चलती है; और महिषासुर के बहाने मिथकों की राजनीति को उजागर करने के लिए प्रवाहित होती है। दलितों और आदिवासियों के हाशिये से निकल कर मुख्यभूमि पर आने के संघर्ष को दर्ज करती है। मेरे लेखन के यही कारण हैं, यही मेरे लिखने का सबब है।
लेखन को एक पेशे के तौर पर अपनाने के बाद भी इन दिक-सूचियों के दायरे मे ही बने रहने की पुरजोर कोशिश करता हूँ। आप जानते ही हैं की हिन्दी के लेखक का पेट लेखन से नहीं भरता, इसलिए अनुवाद से आजीविका चलाने की कोशिश करता आया हूँ। उदास शाम को सुनहरे भोर की ओर ले चलने का प्रयास ही मुझे लिखने को मजबूर करता रहा है।
श्रम के ही एक परिमार्जित रूप के तौर पर मैं लेखन कर्म को देखता हूँ। जिस तरह गीत, नृत्य, नाटक आदि कला के विभिन्न रूप श्रम से ही उपजे और श्रम की कष्टप्रद प्रक्रिया को सहन-योग्य बनाने, विराम देने के काम आते हैं, लेखन भी इन से अलग नहीं। अब वह चाहे कविता हो, कथा-उपन्यास रचना हो या तथ्यात्मक लेख, सामयिक रिपोर्टिंग और अखबारी लेखन, सभी में अदृश्य सूत्र की तरह यह सुकून देने वाली बात मौजूद रहती है। सूचना प्रौद्योगिकी के इस आभासी युग में भी यह मूल चरित्र बदलता नहीं।
सरकारी पुरस्कारों की कामना या पुरस्कार प्राप्ति के उपरांत भी जो लेखन पाँच सौ या एक हज़ार प्रतियों की सीमा को लांघ नहीं पाता और जो रचना पुस्तकालयों में कैद होकर रह जाती हैं, उन से कहीं बेहतर मैं उन रचनाओं और रचनाकारों को मानता हूँ जो हजारों श्रोताओं की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अपनी पंक्तियों को सान देते हैं। पर ज्यों ही लेखन फूहड़पन या अश्लीलता की सीमा लांघने को होता है, अकाल-मरण को प्राप्त होता है। हिन्दी के लेखकों से मैं इस मौके पर पूछना चाहूँगा कि किसान अत्महत्या जैसे संवेदनशील विषयवस्तु पर, डायन के नाम पर होती हत्याओं पर कितनी रचनाएँ अब तक दर्ज हुई हैं? “भीड़शाही” की दरिंदगी के खिलाफ कितनी रचनाएँ आई हैं?
चूंकि प्रेम भी मानव-जीवन के एक आयाम के बतौर ही उपजता है, इसलिए प्रेम कविताओं से भी मुझे परहेज नहीं है। मुस्कान, भाषा, लिपि और प्रेम जैसी उदात्त भावना ही तो मनुष्य को अन्य पशुओं से अलग बनाती है। जैसा कि इस आलेख की शुरुआती पंक्तियों में दर्ज किया है, मैंने प्रेम कविताओं से ही मेरे रचनाकर्म की नींव रखी थी। पर ऐसा माननेवालों में मैं एक हूँ कि प्रेम के बहाने जीवन की कठोर वास्तविकताओं से मुंह फेर लेना रचनाकार के लिए अवांछनीय है ।
अंत में मैं संपादक सत्या के प्रति आभार व्यक्त किए बिना अपनी लेखनी को विराम देना धृष्टता मानता हूँ जिन्होंने मुझे उम्र के इस पड़ाव पर इस लायक समझा कि मेरे लेखन के सबब पर दो-टूक लिखने का आग्रह किया। आभार व्यक्त करने के साथ अपनी लेखनी को यहीं विश्राम देता हूँ।
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रविवार, 6 मार्च 2016
मैं
कहता हों आंखन देखी - तू कहता कागद की लेखी
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महिषासुर का फैलता
दायरा और मिथकों की राजनीति
सबसे पहले
मनु...स्मृति ईरानी को धन्यवाद. जे एन यू की घटनाएं और युनिवेर्सिटी ऑफ़ हैदराबाद
के शोध छात्र वेमुला चक्रवर्ती रोहित की आत्महत्या के सवाल पर बहस के दौरान मनु...
माफ़ कीजिये,...स्मृति ईरानी ने लोकसभा में जो धुंआंधार भाषण डे डाला उस रौ में
उन्होंने जवाहरलाल विश्वविद्यालय में महिषासुर शहादत दिन मनाये जाने का भी जिक्र
किया. असल में उनके इरादे पर शक नहीं किया जाना चाहिए. उनकी पार्टी के प्रति
सहानुभूति जगाने और विरोधी पार्टियों को निरुत्तर कर देने के इरादे से ही उन्होंने
इस क्रियाकलाप का जिक्र किया होगा. पर हाय रे सेरियलों में अतिनाटकीयता और आवेश
में भावुक होने - करने की जवानी से लग चुकी आदत ! यही आदत लगता है ले डूबेगी
स्मृति और उनकी पार्टी को. एकबार महिषासुर को महिमामंडित करने पर उन्होंने लोकसभा
में आवेश क्या जाहिर कर दिया, पासा लगता है उलटा पड़
गया. जिन बहुजनों को धार्मिक भावनाएं भड़का कर आर एस एस और भाजपा आजतक अपनी राजनीति
कि रोटियां सेंकती आई है वही गैर-ब्राह्मण बहुजन स्मृति ईरानी के भाषण से भड़क गया.
कुछ विरोधी पार्टियों ने तो उनके संसद में विशेषाधिकार भंग करने की नोटिस सभापति
सुमित्रा महाजन को थमा भी दी है. परन्तु हम हैरान कुछ दुसरी ही वजह हुए.
दर असल ईरानी जी ने
मधुमख्खियों के छत्ते को झकझोर दिया है और फिर भी वहीँ डटी रहीं. अब दंश भी
झेलना होगा. खैर, बात महिषासुर कि हो रही थी. स्मृति ईरानी तो निमित्त
बन कर आयीं. महिषासुर के पौराणिक/मिथकीय चरित्र ने हमेशा ही मन
में कई सवाल उठाये हैं. करीब दस साल पहले मुझे बिहार सरकार की एन्थ्रोपोलोजिकल
डिपार्टमेंट की आदिम जातियों से सम्बंधित प्रकाशन में ढूँढ़ते हुए एक परिच्छेद का
एक इन्दराज दर्ज मिला और इसके साथ एक महिला का चित्र. असुर नामक एक आदिम
जाति के बारे में बिहार सरकार के पास केवल इतनी सी जानकारी थी. महिला को
चट्टान से रिसते पानी को पत्ते के सहारे
मटके में समेटते दिखाया गया था. मेरी उत्सुकता बढ़ती गयी और मैंने जब दोस्तों
मित्रों से जानकारी हासिल की तो यह जान कर और भी उत्साहित हुआ कि मिथकीय असुरों के
स्टीरिओ टाइप से अलग हमारे आज के झारखण्ड राज्य में बसे असुर तो हज़ारों साल पहले
ही लोहा के खनिज को गलाकर उससे अशुद्धियाँ अलग कर इस्तेमाल करना जानते थे. वे
महिषासुर को अपना आराध्य और पूर्वज मानते हैं. वे जहाँ रहते हैं उन में से एक जिले
का नाम ही लोहरदग्गा है! खैर इन असुरों में पहली महिला स्नातक सुषमा असुर से बाद
में परिचय हुआ.
बंगालियों और उत्तर
भारतीयों में लोकप्रिय दुर्गा पूजा के समय महिषासुर-वध करती देवी के बुत को बचपन
से देखता और मन ही मन यह सोच कर हैरान होता कि महिषासुर का चेहरा-मोहरा संथाल
आदिवासियों से इतना साम्य क्यों रखता है? अब
ईरानी जी की आवेशपूर्ण टिपण्णी के बाद समझ आया कि बंगाल झारखंड के संथाल तो
महिषासुर को अपना पूर्वज मान कर उनकी आराधना करते ही हैं. अब जब खोज में निकल पड़ा
तो किसी रहस्य की परतों की तरह महिषासुर की महिमा मेरे आगे खुलती चली गईं.
सिर्फ संथाल और असुर
आदिवासी ही नहीं, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर रहने वाले
कोरकू आदिवासी भी महिषासुर को आराध्य मानते हैं. और् तो और, मध्य प्रदेश और उत्तरप्रदेश के कई जिलों में फैले
बुंदेलखंड में भी महिषासुर के एक दो नहीं, कई
मंदिर हैं. और इनमें कोई आदिवासी नहीं, यादव/ अहीर लोग महिषासुर की पूजा करते हैं!
देवासुर युद्ध का मिथक बेशक आर्य और
आदिवासियों के बीच चली लम्बी लड़ाईयों के आर्य पाठ के आधार पर गढ़ लिया गया हो, ऐसा मुझे विश्वास हो चला है. अंग्रेजों ने
आर्य/द्रविड़ जातियों का अंतर दिखला दिया. क्या अंग्रेजों के पहले कम से कम एक
सहस्राब्दी तक ऐसा विभाजन नज़र आता रहा है ? नागार्जुन
से शंकराचार्य और रामानुजाचार्य-रामानन्द तक सभी प्रकट रूप से दक्षिण के
विद्वान थे, जिन्हें उत्तर में भी पूरी मान्यता और आदर मिला.
जो भी हो, महिषासुर की खोज में दक्षिणमुखी हुआ तो कर्नाटक
राज्य के दूसरे बड़े शहर मैसूरु पर आ कर नज़र ठहर गयी. 'ऊरु' द्रविड़
भाषाओं में 'गाँव' का
पर्यायवाची है. महिषासुर+ऊरु=मैसूरु. यह समीकरण कोई मेरी उपजाऊ खोपड़ी की पैदावार
नहीं, वास्तविक है. वहां तो महिषासुर की विशाल प्रतिमाएं सार्वजनिक स्थलों की शोभा
बढ़ाती नज़र आती है. पछले दिनों अखबारों में ऐसी एक प्रकांड प्रतिमा की तस्वीर देखने
का सौभाग्य मिला.
तो फिर कह सकते हैं
कि समूचे देश में महिषासुर के प्रशंसक फैले नज़र आये. मनु... (माफ़ करें)...स्मृति
ईरानी का महिषासुर की शहादत पर जे एन यू के छात्रों का समावेश करने को
देशद्रोह मान कर राष्ट्रविरोधी कार्रवाई घोषित करना भजपा के लिए गले कि
हड्डी साबित हो सकती है. न निगलते बने न उगलते! तमाम बहुजन
आदिवासी अगर अपने अपने महिषासुर के पक्ष में लामबंद हो रहे हैं तो भाजपा की
वोटबैंक की राजनीति के लिए यह अशुभ संकेत है. महिषासुर ही बचाये ऐसी विपदा से.
वरना मैदान छोड़ कर कृष्ण का रणछोड़ दास का नाम सार्थक करते नज़र आने में देर न
होगी... वैसे भी, अगले महीने-दो महीने में चार राज्यों में
चुनाव हैं. बाबा साहेब आंबेडकर को जिस तरह समरसता में समाहित करने की कवायद चल रही
है, उसी तरह किसी दिन मोदी जी और मोहन भागवत अगर महिषासुर वंदना करते नज़र आने लगें
तो एक बार मुझे याद कर लीजिये.
गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016
मैं कहता हों आंखन देखी - तू कहता कागद की लेखी
तंजानिया की युवती को निर्वस्त्र कर घुमाना
कैसी सभ्यता ? कैसी मानसिकता ?
बेंगलूरू में फ़रवरी के प्रारम्भ में एक कार से घर लौट रहे तंजानियाई युवक और युवती के साथ अमानवीय ढंग का सुलूक एक हुजूम ने किया. घटना से देश की गर्दन शर्म से झुक जानी चाहिए. क्या उत्तर, क्या दक्षिण - भारतीय लोगों की विकृत मानसिकता अब एक बीमारी के स्तर पर जा पहुँची है. विदेशी/ फिरंगियों के साथ उत्तर भारत के शहरों में बलात्कार की घटनाएं पहले भी घटती रही हैं. आपराधिक मानसिकता कह कर सिर्फ उन बलात्कारियों को शीघ्र सजा दे कर हमारी न्यायपालिका ने वाहवाही तो पायी है, पर सामूहिक मानसिकता का समाजशास्त्रीय स्तर पर विश्लेषण और विवेचना करने तथा समूचे समाज की मानसिकता के जनवादीकरण के प्रयास आज तक नहीं हुए हैं.
अफ्रीका से आ कर भारतीय शहरों में स्थित विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाई कर रहे छात्रों के साथ आये दिन जैसा सलूक हमारी "नागरिक" और "सभ्य" जनता करती है, उसके पीछे सिर्फ 'आपराधिक मानसिकता' को अथवा 'भीड़ की मानसिकता' को दोष देकर हम पल्लू नहीं झाड सकते. तंजानियाई युवती को नग्न कर, खुली सड़क पर सैकड़ों लोगों के बीच उसे जुलूस की शक्ल में घुमाने की घटना को केवल राजनयिक समस्या के तौर पर भी कुछ सत्तासीन लोगों ने चित्रित किया है. तंज़ानिया तीसरी दुनिया का पिछड़ा हुआ अफ्रीकी देश है, इस कारण राजनयिक 'संकट' नहीं खड़ी हुई. दो दिन बाद जनता की कमज़ोर याददाश्त के बहाने अखबारों और टीवी की खबरिया चैनलों से भी इस घटना को भुला दिया जायेगा.
हम आज तक दुनिया को सभ्यता सिखाने का दंभ पालते रहे हैं. पर सच्चाई कुछ ऐसी है कि हमारी गिरेबान में धब्बे ही धब्बे नज़र आते हैं. पौराणिक काल के चीर हरण से ले कर रूप धर कर सम्भोग (दुसरे लफ़्ज़ों में बलात्कार) करने तक को प्रकारांत से वैधता प्रदान किया जाता रहा है. उच्च वर्ण-वर्गीय नैतिकता के ब्राह्मणी-सामंतवादी पैमानों के चलते समाज के दबे कुचले, वंचित और हाशिये के तबकों के साथ की जाती रही ज्यादतियों को छुपा जाने या महिमा मंडित कर जायज़ ठहराने का चलन हमारी चेतना में गूँथ दिया गया है. एकलव्यों और शम्बूकों की अंगूठे काट लेने या सरासर हत्या कर देने तक को बड़ी ही बेशर्मी के साथ उचित और अवतार की लीला अदि कह कर इन जघन्य अपराधों का समर्थन हम करते आये हैं.
बीसवीं सदी में जब दलित चेतना ने अंगडाई ली, तब से तो खूंख्वार हिंदुत्व का रूप ले कर ब्राह्मणी सामंतवाद ने शूद्र मानी जाती रही जातियों को ही उनपर हमले करने को उकसा दिया. तमिलनाडु के किल्वेनमणि में १९६६ में सवर्ण जमींदारों द्वारा दलित टोले को घेर कर किया गया ४० दलितों का नरसंहार से इस तरह के अपराधों की शुरुआत हुई. महाराष्ट्र में मराठवाडा के नामांतर आन्दोलन के समय से वहां लगातार हुए नरसंहारों, फूलन देवी के साथ हुई घटना और बिहार में हुई नर संहार की अनगिनत घटनाएँ महज उस लम्बी फेहरिस्त में से चन्द हैं जिनके कारण दलितोथ्थान/प्रगति से उपजी प्रतिक्रियात्मक हिंसा और असहिष्णुता का एक न थमने वाला सिलसिला चल पड़ा है. पर किसी सूडानी की कार से हुई दुर्घटना की प्रतिक्रिया में तंजानियाई छात्रों पर किया गया हमला सारी हदें पार कर गईं. क्या इसमें हमारी चेतना में छिपी न्यूनता गंड की बू नहीं आती ? अंग्रेजों/फिरंगियों ( रंगहीन- अथवा'गोरों' ) के 'गोरेपन' से चौंधियाए सवर्ण भूरे भारतीय मानस में पहले ही से शूद्र और अस्पृश्यों के प्रति मौजूद रहे तिरस्कार भाव को मानो पंख ही लग गए हों! इधर 'फेयर एंड लवली' एक हफ्ते में गोरेपन के नाम पर बिकने वाली क्रीम के बिक्री के आंकड़ों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि हम 'गोरा' बनने के लिए किस हद तक जा सकते हैं! उत्तरपूर्व के छात्रों को चीनी कहकर उलाहना ही नहीं दिया जाता, दिल्ली में तो पिछले वर्षों दो मणिपुरी विद्यार्थियों कि पीट पीट कर हत्या तक कर दी गयी. इन में से एक तो एक मंत्री का १७ वर्षीय पुत्र था. बेंगलूरू में ऐसे ही घृणाजनित हमलों से दो साल पहले सारे उत्तरपूर्व के छात्रों को पलायन करना पड़ गया था.
काले रंग को यूरोपियों की तरह भारत में भी निम्न और नकारात्मक रूप में देखा जाता रहा है. अफ्रीका की जनता के साथ ही फिरंगियों ने हम भारतीयों को भी समान रूप से गुलाम बनाये रखा था. जैसे अफ़्रीकी लोगों को दास बना कर अमेरिका में बेचा गया उसी तरह हमारे भोजपुर आदि इलाकों से,तमिलनाडु से हजारों को 'गिरमिटिया' बना कर सात समंदर पार ले जाया गया. दक्षिण अफ्रीका और सूरीनाम, जमैका आदि वेस्ट इन्डीस देशों में तो अफ़्रीकी गुलामों और हमारे पूर्वजों से अलग कर'गिरमिटिया' बनाये गए लोगों को एक जैसा रंगभेद और गुलामी का बर्ताव सहना पड़ा. इस तरह साझा इतिहास और साझी विरासत होते हुए भी हमारी न्यूनतागंड में हमें काले रंग के लोगों के साथ दुर्व्यवहार करने कि प्रवृत्ति की ओर धकेल दिया. नस्ल असल में चमड़ी तक ही गहरी है, यह तो अब साबित हो ही चुका है (जीनोम प्रोजेक्ट के बाद). समूची मानव जाती की जननी भी इथियोपिया की एक नारी ही थी, यह भी वैज्ञानिक आधार पर साबित हो गया है. चाणक्य तो ‘काला ब्राह्मण’ था यह प्रसिद्ध है ही. फिर हमारी सामूहिक चेतना से यह नस्ली/जातीय भेदभाव और घृणा कैसे मिटे? समस्त मानव जाति के 'कुटुंब'होने कि थोथी दलीलें काम नहीं आने वाली. असल में हमारी सामूहिक मानसिकता के जनवादीकरण के बिना किसी परिवर्तन की आशा करना रेत से घी निकालने जैसी आशा ही होगी.
तुषार
तुषार कान्ति,
३०१, ऋतुराज अपार्टमेंट,
एस - ५, भरतनगर, अमरावती रोड,
नागपुर -- ४४ ०० ३३
मोबाइल नंबर : +९१ ९९ २२ ४९० ३८३ ,
+९१ ८६००५१७८०१.
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